एक कथा के मुताबिक पुरी मंदिर के पास एक वृद्धा महिला रहती थी, जो भगवान जगन्नाथ को अपने बेटे के समान मानती थी। एक दिन उसने सोता कि इतने सारे भारी भोजन के बाद उसके बेटे को यानी भगवान को पेट दर्द हो सकता है।
इस सोच के साथ उस महिला ने नीम के औषधीय गुणों को ध्यान में रखते हुए उसका चूर्ण बनाया और उसे भगवान को भोग के रूप में चढ़ाने मंदिर पहुंची। लेकिन द्वार पर खड़े सैनिकों ने उसे अंदर जाने से रोक दिया।
यह सब देखकर वह वृद्धा अत्यंत दुःखी हो गई। उसे लगा कि वह अपने बेटे के लिए जो प्रेमपूर्वक औषधि लाई थी, वह उसे अर्पित भी नहीं कर सकी।
उस रात भगवान जगन्नाथ ने पुरी के राजा को स्वप्न में दर्शन दिए और पूरी घटना सुनाई। भगवान ने कहा कि उनकी एक सच्ची भक्त का अपमान हुआ है। उन्होंने राजा को आदेश दिया कि वह स्वयं उस महिला से क्षमा मांगे और उसे दोबारा चूर्ण बनवाकर उन्हें अर्पित करें।
सुबह होते ही राजा ने भगवान की आज्ञा का पालन किया। वह वृद्धा के घर गया, उससे क्षमा मांगी और आग्रह किया कि वह फिर से नीम का चूर्ण बनाए।
महिला ने प्रेमपूर्वक फिर से वह चूर्ण तैयार किया और राजा ने उसे भगवान को भोग के रूप में चढ़ाया। भगवान ने भी उस भोग को प्रेमपूर्वक स्वीकार किया।
तभी से यह परंपरा चली आ रही है कि भगवान जगन्नाथ को 56 भोग के बाद नीम का औषधीय चूर्ण अर्पित किया जाता है। यह परंपरा भगवान की करुणा और भक्त के प्रेम का प्रतीक है।
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