मां-बाप की ये 5 बातें चुपचाप सह जाती हैं बेटियां, लेकिन अंदर से टूट जाती हैं
बेटियाँ अपने माता-पिता से बहुत कुछ कहना चाहती हैं पर कह नहीं पातीं। चलिए जानते हैं ऐसी ही कुछ बातें जो बेटियां चुपचाप सह जाती हैं लेकिन ज्यादातर मामलों में कभी इसका जिक्र किसी से नहीं करतीं।

बेटियाँ घर की शान, संस्कारों की पहचान और प्यार की मिसाल मानी जाती हैं। वे ना सिर्फ अपने सपनों को, बल्कि पूरे परिवार की उम्मीदों को भी संजोकर चलती हैं। लेकिन इन सारी जिम्मेदारियों के बीच कुछ ऐसी भावनाएँ होती हैं, जिन्हें बेटियाँ कभी जुबान पर नहीं लातीं। वे मुस्कुराकर अपने हर दर्द को छुपा लेती हैं, ताकि उनके माँ-बाप को कोई चिंता ना हो। दरअसल, बेटियाँ अपने माता-पिता से बहुत कुछ कहना चाहती हैं पर कह नहीं पातीं। उनकी चुप्पी में कई बार आंसू, सवाल और अधूरी इच्छाएँ दबी होती हैं। चलिए जानते हैं ऐसी ही कुछ बातें जो बेटियां चुपचाप सह जाती हैं लेकिन ज्यादातर मामलों में कभी इसका जिक्र किसी से नहीं करतीं।
अपनी पहचान और सपनों को लेकर चुप हो जाती हैं
बेटियाँ अक्सर माँ-बाप की उम्मीदों के दबाव में अपनी असल पहचान और सपनों को कहीं पीछे छोड़ देती हैं। कई बार वो खुलकर अपने ड्रीम्स के बारे में अपने पेरेंट्स से भी शेयर नहीं कर पाती है। वहीं अब भी ज्यादातर घरों में लड़कियों का फ्यूचर या सपने इनके पेरेंट्स डिसाइड करते हैं। ऐसे में लड़कियां खुलकर कुछ बोल नहीं पाती क्योंकि उन्हें डर रहता है कि उनकी किसी बात से पेरेंट्स को दुख ना हो।
बंदिशों के बीच रहना
बेटियों को अक्सर ‘सम्मान’ और ‘सुरक्षा’ के नाम पर सीमाओं में बाँध दिया जाता है। देर से घर लौटना, दोस्तों के साथ बाहर जाना या अकेले कहीं ट्रैवल करना, इन सब चीजों की मनाही होती है। जबकि यही बातें बेटे के लिए नॉर्मल मानी जाती हैं। बेटियाँ चाहकर भी ये बात नहीं कह पातीं कि उन्हें भी भरोसे और आज़ादी की जरूरत है और इन बाउंडेशन को झेलते हुए जिंदगी जीती रहती हैं।
‘अच्छी बेटी’ बनने का दबाव
बचपन से ही बेटियों को सिखाया जाता है कि उन्हें सबका ख्याल रखना चाहिए, झगड़ा नहीं करना चाहिए और हमेशा मुस्कुराते रहना चाहिए। इस आदर्श बेटी की परिभाषा से बेटियां अक्सर इमोशनली थक जाती है। इसकी वजह से कई बार वो खुद का वजूद खोने लगती है। पेरेंट्स और समाज के नजर में खुद को अच्छा बनाए रखने की चाह में वो खुद के सपनों की कुर्बानी दे देती है।
शादी का दबाव और किसी फैसले में उन्हें शामिल ना करना
आज के समय में भी कई परिवार ऐसे हैं जहां 20-22 की उम्र में पहुंचते ही घरवालों को बेटियों की शादी की चिंता सताने लगती है। यहां तक शादी जैसे अहम फैसले में भी पेरेंट्स बेटियों की इच्छा जानने का प्रयास नहीं करते है और अपनी मर्जी से उनकी शादी करवा देते हैं। बेटियां चाहकर भी कुछ बोल नहीं पाती और अपने पेरेंट्स की पसंद को ही अपनी किस्मत मानकर जिंदगी बिता देती हैं।
अपने शरीर और कपड़ों को लेकर लगातार टिप्पणी
बेटियाँ अक्सर अपने पहनावे, शरीर की बनावट या चाल-ढाल को लेकर घर में ही आलोचना का सामना करती हैं। 'इतना टाइट मत पहनो', 'थोड़ा वजन कम करो', 'अच्छी लड़कियाँ ऐसे नहीं बैठतीं'। ये बातें उन्हें अपने ही शरीर को लेकर असहज बना देती हैं। वे चाहकर भी नहीं कह पातीं कि उन्हें अपने शरीर को लेकर जजमेंट अच्छा नहीं लगता।
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