ईरान अब नया अलाव है
वे समस्त कारण यथावत मौजूद हैं, जिन पर जंग छिड़ी थी।... लगभग दो हफ्ते चले इस युद्ध में अमेरिका भी अपनी समूची ताकत के साथ कूदा, पर हासिल क्या हुआ? कहते हैं कि ईरान के पास अभी भी 400 किलोग्राम संवर्धित यूरेनियम है, जिसे कुछ हफ्तों में परमाणु आयुध में तब्दील किया जा सकता है…

ईरान और इजरायल के बीच खूनी जंग भले ही थम गई हो, लेकिन इसे शांति का आगाज नहीं माना जा सकता। ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि शांति के स्वयंभू मसीहा डोनाल्ड ट्रंप ने जुमे के दिन फरमाया कि अगर ईरान ने यूरेनियम संवर्धन का कार्यक्रम जारी रखा, तो अमेरिका बिला शक उस पर दोबारा बम बरसाएगा। इससे एक दिन पहले ईरान के सर्वेसर्वा आयतुल्लाह अली खामेनेई ने कहा था कि अगर अमेरिका ने हम पर फिर हमला किया, तो उसे दंड भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को भी जारी रखने पर प्रतिबद्ध है।
मतलब साफ है कि वे समस्त कारण यथावत मौजूद हैं, जिन पर जंग छिड़ी थी।
इजरायल ने हमले से पूर्व दावा किया था कि ईरान बहुत जल्दी परमाणु बम बना लेगा और वह हमारे अस्तित्व के लिए स्थायी खतरा बन जाएगा। दूसरा कारण यह बताया गया था कि हम तेहरान से आयतुल्लाह अली खामेनेई की सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। खामेनेई राज न केवल अलोकप्रिय है, बल्कि औचित्यपूर्ण हुकूमत के नाम पर धार्मिक घृणा से भरे आतंकवादियों का संगठन है। लगभग दो हफ्ते चले इस युद्ध में अमेरिका भी अपनी समूची ताकत के साथ कूदा, पर हासिल क्या हुआ? कहते हैं कि ईरान के पास अभी भी 400 किलोग्राम संवर्धित यूरेनियम है, जिसे कुछ हफ्तों में परमाणु आयुध में तब्दील किया जा सकता है। रही बात खामेनेई की, वह न केवल कायम हैं, बल्कि उन्होंने अपने उत्तराधिकारी तक चुन लिए हैं।
इस जंग में जीत-हार के दावे तो किए गए, परंतु इसकी हकीकत किसी को नहीं मालूम कि किस पक्ष का कितना नुकसान हुआ? इससे आक्रांता इजरायल का मकसद पूरा हुआ या नहीं? जवाबी हमलों से ईरान का प्रतिशोध कितना पूरा हुआ? इस युद्ध में अमेरिका क्यों कूदा? उसके पास तो आक्रमण करने का कोई वाजिब बहाना भी न था।
ईरान परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) की शर्तों से बंधा हुआ था। इसे और मजबूत करने के लिए उसकी अमेरिका से वार्ता जारी थी। हमले की तिथि के दो दिन बाद ही बातचीत का अगला दौर प्रस्तावित था। इसके बावजूद इजरायल ने इस दावे के साथ हमला बोल दिया कि उसने पहले से अमेरिका को विश्वास में ले रखा है। क्या यही वजह है कि इस युद्ध को निर्णायक मुकाम पर पहुंचाने के लिए अमेरिका ने हस्तक्षेप किया? उसने बी-2 बॉम्बर जैसे विशालकाय विमान और जीबीयू-57 जैसे महाकाय बम का इस्तेमाल किया। क्यों?
दरअसल, इस युद्ध का कोई नैतिक आधार भी नहीं था।
भरोसा न हो, तो इस तथ्य पर नजर डाल देखिए। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने बार-बार कहा है कि ईरान परमाणु बम बनाने का सामर्थ्य अभी तक हासिल नहीं कर सका है। बरसते प्रक्षेपास्त्रों के हत्यारे दिनों में भी उसने इस तथ्य को दोहराया, पर इजरायल और अमेरिका रुके नहीं। मतलब साफ है। ईरान पर हमले के कारण कुछ और हैं? कहीं ऐसा तो नहीं, गाजा में अंतहीन अनर्थ से दिन-ब-दिन अलोकप्रिय होते बेंजामिन नेतन्याहू को इससे संजीवनी मिलनी थी? इजरायल में अगले साल आम चुनाव हैं और गाजा की हिंसा से उकताए लोगों को भरमाने के लिए अंध-राष्ट्रवाद की नई लहर की जरूरत थी। प्रधानमंत्री नेतन्याहू अपने इस मकसद में फिलहाल सफल होते दिख रहे हैं।
नेतन्याहू मध्य एशिया के सबसे चतुर सियासी खिलाड़ी हैं। वह 1996 से अलापते आए हैं कि ईरान कुछ महीनों में परमाणु बम बना लेगा। सदी बदलने के साथ इसमें सिर्फ एक परिवर्तन हुआ। वह महीनों की जगह हफ्ते गिनाने लगे। आईएईए कहता रह गया कि ऐसा नहीं है, पर जोर से लगातार बोला गया झूठ अक्सर सच को पछाड़ देता है। यह काम तब और आसान हो जाता है, जब जनता इसे सुनना पसंद करती है। क्या इजरायल की जनता बेवकूफ है, जो तमाम नवाचारों की जननी होने के बावजूद ऐसे झूठ पसंद करती है?
ऐसा नहीं है। कुछ दोष ईरान का भी है। इस्लामिक क्रांति के बाद उसने तेहरान के मुख्य चौराहे पर ऐसी घड़ी स्थापित की थी, जो इजरायल के अंत का समय बताती थी। हर पल वह वक्त कम होता जाता था। इस बेहूदी घृणा को भला कौन पसंद करेगा? यही नहीं, ईरान के हुक्मरां गाहे-बगाहे इजरायल के विनाश की कसम दोहराते रहते थे। पाकिस्तान ने कभी अपने परमाणु बम को ‘इस्लामी बम’ की उपाधि से नवाजा था। ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को यहूदियों का संहारक कहता था। वह घड़ी इस हमले में ध्वस्त हो चुकी है, पर परमाणु कार्यक्रम?
यहां अमेरिका का झूठ और फरेब एक बार फिर बेनकाब होता है। 1980 के दशक में ईरान और इराक के बीच लंबी लड़ाई चली थी। उस समय अमेरिका और उसके पिट्ठू पश्चिमी देश इराक के साथ थे। सद्दाम हुसैन को एक से बढ़कर एक संहारक हथियार दिए जा रहे थे। अगले दशक में उसी इराक का अमेरिका ने क्या हाल बनाया? बगदाद में ‘कॉरपोरेट बॉम्बिंग’ के लिए झूठा कारण बताया गया था। कहा गया था कि उसके पास खतरनाक रासायनिक हथियार हैं, जो धरती के बाशिंदों के खिलाफ हैं। पूरी तबाही के बाद अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों ने पाया कि न तो इराक के पास ऐसे हथियार थे और न ही वह उन्हें बनाने की कोशिश कर रहा था।
ईरान के साथ भी यही कुकृत्य दोहराया गया है। आईएईए की घोषणा और बीच बातचीत हमला अमेरिका व इजरायल की अपवित्र जुगलबंदी की एक बार फिर मुनादी करता है।
क्या इससे ईरान इस दिशा में बढ़ते कदम रोक देगा? कतई नहीं। तेहरान अब परमाणु अप्रसार संधि से बाहर है और उसने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखने की कसम जगजाहिर की है। ऐसा लगता है कि अमेरिका और इजरायल एक कांटा दूर करने की कोशिश में चारों ओर कांटे बिखेर रहे हैं।
अच्छा हुआ, यह युद्ध रुक गया। यह संघर्ष पांव पसारता, तो भला इसकी क्या गारंटी कि मध्य एशिया के अन्य अरब देश इसकी चपेट में न आ जाते? सोमवार की रात ईरान ने कतर और इराक स्थित अमेरिकी अड्डों पर जो बम बरसाए, वह सिर्फ अमेरिका पर नहीं, बल्कि उन देशों की प्रभुसत्ता पर भी हमला था। कतर ने तो बदला लेने की कसम भी खाई है। जान लें, इस क्षेत्र में अमेरिका के आठ सैन्य अड्डे हैं और ये सभी ईरानी मिसाइलों की जद में आते हैं।
यहां एक बात और गौरतलब है। संसार की दो और बड़ी सामरिक शक्तियां चीन व रूस प्रत्यक्ष तौर पर तो धमकाने की भाषा में विरोध जता रही थीं, पर अंदरखाने संघर्ष-विराम की पटकथा लिखी जा रही थी। ट्रंप ने जिस दिन युद्ध-विराम की घोषणा की, उससे एक दिन पहले ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अरागची मॉस्को में थे। उन्होंने न केवल अपने समकक्ष सर्गेई लावरोव के साथ लंबी बात की, बल्कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से भी मुलाकात की। चीन, रूस और अमेरिका मिलकर हालात को यूं ही साधे रहें, तो बेहतर रहेगा, पर खामेनेई व ट्रंप के ताजा वक्तव्य आशंकाओं के नए बीज रोप रहे हैं।
तय है, गाजा और यूक्रेन के बाद अब ईरान को दहशत का नया अलाव बनाने की कोशिशें की जा रही हैं।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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