अनुशासन पर्व या आफत पर्व
इमरजेंसी के पचास वर्ष बाद उन दिनों को याद कर अगर अफसोस होता है, तो यह गर्व भी है कि हम भारतीयों ने इस जबरदस्त लड़खड़ाहट के बावजूद अपने लोकतंत्र को न केवल कायम रखा, बल्कि उसके जरिये विकास की नई मंजिलें तय कीं…

वह 1976 की गर्मियां थीं। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी शहर में एक रसूखदार की कोठी में ढलती शाम तमाम लोग गप-शप के लिए इकट्ठा थे। उसी वक्त गमछे में मुंह लपेटे एक कृशकाय शख्स अचानक प्रकट हुआ और गृहस्वामी के पांव जकड़कर बैठ गया। उसकी दुर्बल काया पीपल के पीले पत्ते की तरह कांप रही थी।
वह हमारे गांव के पास का एक धोबी था।
उसने रोते हुए अपनी दर्दनाक दास्तां शुरू की- कुछ दिनों पहले मेरा गांव के किसी व्यक्ति से मामूली सा विवाद हुआ था। जिससे झगड़ा हुआ, उसका रिश्तेदार पुलिस में दारोगा है। कुछ दिन बाद मेरे घर पर पुलिस के एक दस्ते ने छापा मारा। मुझ पर आरोप है कि मैंने ‘सशस्त्र क्रांति लाने के उद्देश्य से रेल की पटरियां उखाड़ने की साजिश’ रची। वह इन शब्दों का सही उच्चारण तक नहीं कर पा रहा था, क्योंकि महज दो दिन पहले तक ये अल्फाज उसकी जानकारी से परे थे।
सौभाग्य से उस दिन वह कहीं दूर रिश्तेदारी में गया हुआ था। अगर वह धर लिया गया होता, तो पुलिस उसे महीनों के लिए कुख्यात ‘मीसा’ में बंद कर देती। वहां बैठे तमाम लोग उसकी बात मानने को तैयार न थे। उन्हें लग रहा था कि कोई छोटी-मोटी बला टालने के लिए वह इतना बड़ा बहाना रच रहा है। पता करने पर उसकी कहानी सच निकली और जिले के पुलिस अधीक्षक से बात कर वह मामला रफा-दफा किया गया। दुर्भाग्य से वह अकेला नहीं था। इमरजेंसी के 21 महीनों में पूरे देश में ‘मीसा’ में लगभग 35 हजार और ‘डीआईएसआईआर’ में 75 हजार से अधिक लोग निरुद्ध किए गए थे। इसके अलावा अन्य आपराधिक कानूनों के तहत भी लाखों लोग पकड़े गए थे। इनमें नौ साल से लेकर 90 वर्ष से अधिक उम्र के हिन्दुस्तानी शामिल थे। कांग्रेस और सीपीआई के अलावा सभी दलों के नेता इनमें शामिल थे।
आपातकाल में मिले अधिकारों से सरकार के साथ नौकरशाही तक निरंकुश हो गई थी।
इसके बावजूद इमरजेंसी के शुरुआती दिनों में लोग खुश थे। ट्रेनें समय पर चलने लगी थीं। बस अड्डों पर निर्धारित समय पर बसें आतीं-जातीं। अपराध कम हो गए थे। दफ्तरों में बाबू लोग समय पर पहुंचते और फाइलें आगे बढ़ाने के लिए ‘दस्तूरी’ नहीं देनी होती। स्कूलों में कक्षाएं नियमित तौर पर चल रही थीं और सड़कों से लुच्चे-लफंगे गायब थे।
उन दिनों मैनपुरी में एक ‘कोतवाल’ हुआ करते थे। वह किसी भी चौराहे पर खड़े हो जाते। उनके हाथ में एक कोका कोला की बोतल होती और जो युवक बेलबॉटम पहनकर उधर से गुजरते, उन्हें रोककर उनकी बेल्ट के पास से वह बोतल अंदर डाली जाती। अगर बोतल पांयचे से बाहर जा निकलती, तो गजब हो जाता। उस नौजवान को हिप्पी मान लिया जाता और सरेआम उसकी कान खिंचाई की जाती। यही नहीं, अगर किसी ने बाल बढ़ा रखे हों, तो उसे नशेड़ी-गंजेड़ी की संज्ञा देते हुए वहां पहले से तैयार नाई गंजा कर देते। वे बाकायदा इसकी फीस भी वसूलते। वर्ष 2025 में यह सब पढ़ते हुए आपको आश्चर्य हो रहा होगा, लेकिन उस समय के तमाम लोग ऐसे कृत्य जरूरी मानते।
राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी के निकट सहयोगी रहे विनोबा भावे ने इमरजेंसी को ‘अनुशासन पर्व’ की संज्ञा दी थी। अधेड़ अथवा बुजुर्ग लोग उन दिनों अक्सर कहा करते थे कि लगता है, ‘अंग्रेज बहादुर का’ समय लौट आया है, जहां शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पिया करते थे। आगामी 25 जून को ‘अनुशासन पर्व’ की शुरुआत के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं और इस मौके पर उन दिनों को याद करते हुए दहल उठा हूं।
इंदिरा गांधी ने ऐसा क्यों किया था?
प्रत्यक्ष तौर पर ऐसा लगता है कि उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय से अपना चुनाव निरस्त होने के बाद देश पर आपातकाल थोपा, मगर कुछ और वजहें भी पार्श्व में कुलबुला रही थीं। 1971 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने 442 संसदीय क्षेत्रों में कांग्रेस के उम्मीदवार उतारे थे। इनमें 352 पर जीत हासिल हुई थी। उन्होंने यह चुनाव ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के सहारे जीता था, लेकिन वह महंगाई और बेरोजगारी पर काबू पाने में असफल रहीं। इससे हलकान छात्र और मजदूर आंदोलन पर उतर आए थे। भारत-पाक युद्ध के दौरान ‘दुर्गा’ की उपाधि पाने वाली इंदिरा गांधी अब एक असफल सत्ताधारी साबित हो चुकी थीं। ऐसे में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला ताबूत की आखिरी कील की मानिंद प्रकट हुआ। आपातकाल एक डरे हुए हुक्मरान का आखिरी दांव था।
यह ‘इमरजेंसी’ कब और कैसे भस्मासुर बन गई, इसका आकलन समय रहते करने में वह नाकाम रही थीं।
इसी दौरान उनके छोटे पुत्र संजय गांधी के कथित इशारे पर जबरन नसबंदी का अभियान चलाया गया। कहते हैं कि यह अल्पसंख्यकों के विस्तार को रोकने के लिए किया गया था। आरोप है कि अल्पसंख्यकों और दुर्बलों की बस्तियों पर पुलिस धावा बोलती और नसबंदी के बाद उन्हें छोड़ दिया जाता। हो सकता है, कुछ जगहों पर ऐसा किया गया हो, लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है कि परिवार नियोजन को एक राष्ट्रीय अभियान का स्वरूप दिया गया था। उन दिनों आला सरकारी अधिकारियों को अघोषित तौर पर कोटे दिए गए थे। वे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर दबाव बनाते कि आपके यदि तीन बच्चे हो गए हों, तो नसबंदी करा लें, फायदे में रहेंगे।
उपजते असंतोष से लरजते उन दिनों तुर्कमान गेट जैसे हादसे भी हुए। सरकारी मशीनरी ने नई दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके में ‘सौंदर्यीकरण’ के नाम पर 10 बुलडोजर और बड़ी संख्या में पुलिस बल के साथ धावा बोल दिया। कहते हैं, जब वहां के निवासियों ने विरोध किया, तो गोलियां चलाई गईं और कुछ लोग मारे गए। कितने मारे गए अथवा घायल हुए, इसकी सही संख्या सरकार ने कभी उजागर नहीं की। मीडिया भी इस पर ज्यादा आवाज नहीं उठा सका, क्योंकि उस पर तो पहले दिन से ही पाबंदी थी। उस दौरान कई अखबारों को प्रकाशन से पूर्व अपनी खबरें जिला प्रशासन को दिखानी होती थीं। जिला सूचना अधिकारी अथवा अन्य किसी सक्षम अधिकारी द्वारा दस्तखत करने के बाद ही अखबार छपाई के लिए भेजे जा सकते थे।
वे भारतीय गणतंत्र के काले दिन थे।
इंदिरा गांधी की सहेली पुपुल जयकर ने बाद में अपनी किताब में लिखा कि कैसे खुद इंदिरा इस अनर्थ को होते हुए देख विचलित हो बैठी थीं। वह विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति के पास गई थीं और उसी के बाद उन्होंने इमरजेंसी समाप्त करने और चुनाव कराने का फैसला किया था। उन चुनावों में कांग्रेस हारी और जनता पार्टी आई। उसके बाद कैसे पुन: इंदिरा गांधी लौटीं, यह लंबी कहानी है, लेकिन 50 वर्ष बाद उन दिनों को याद कर अगर अफसोस होता है, तो यह गर्व भी है कि हम भारतीयों ने इस जबरदस्त लड़खड़ाहट के बावजूद अपने लोकतंत्र को न केवल कायम रखा, बल्कि उसके जरिये विकास की नई मंजिलें तय कीं।
आप चाहें, तो इस लोकतांत्रिक प्रवृत्ति पर गर्व कर सकते हैं!
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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