Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan Aajkal Column by Shashi Shekhar 18 May 2025

जीत के साये में उपजे सवाल

क्या यह बदले वक्त का तकाजा है कि हमारी खोखली भावुकता अब सिर्फ की-बोर्ड पर थिरकती उंगलियों तक सीमित रह गई है? सोशल मीडिया पर बजबजाते हुए तमाम भारतवंशी भूल जाते हैं कि हमारे कुछ हमवतन उनके शब्दबाणों से आहत हो रहे हैं…

Shashi Shekhar लाइव हिन्दुस्तानSat, 17 May 2025 08:58 PM
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जीत के साये में उपजे सवाल

ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता के बाद सीमावर्ती इलाकों में अमन की वापसी हो चुकी है। यही वह वक्त है, जब हमें जीत के जोश और जज्बे के पीछे दुबकी परछाइयों पर ध्यान देना होगा। इनके सीने में गौरतलब सवाल कसमसा रहे हैं।

भारतीय इतिहास के हाशियों में दर्ज पुरागाथाएं गवाह हैं कि उनकी शताब्दियों तक अनदेखी की गई। ईसा पूर्व 326 से 1962 तक विदेशी आक्रमणकारी इसीलिए हमारे जान-माल की कीमत पर जीत का जश्न मनाते रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रीति-नीति के आलोक में हमें अब पराक्रम और सामरिक सफलता के फर्क को सदा-सर्वदा के लिए मिटाने की कोशिशें शुरू कर देनी चाहिए। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं?

याद करें। वर्ष 1971 में हमने पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांटने में सफलता अर्जित की। इस महाविजय के 28 साल बाद भारत ने नया कीर्तिमान रचा। इस बार कारगिल की प्राणलेवा ऊंचाइयों पर पाक फौज को परास्त कर पर्वतीय युद्ध के नए कौशल ने दुनिया को अचरज में डाल दिया था। इसके बावजूद न दहशतगर्द रुके और न दहशत। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऑपरेशन सिंदूर के जरिये नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। अब हर आतंकवादी हमला युद्ध की कार्रवाई माना जाएगा और हम कार्रवाई करते वक्त किसी परमाणु ब्लैकमेल से नहीं डरेंगे। भारत-पाकिस्तान के जन्मजात रिश्तों में यह अहम मुकाम है।

यहां अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि जब ऑपरेशन सिंदूर के दौरान समूचा देश नरेंद्र मोदी के साथ खड़ा था, तब कुछ विघ्न संतोषी बाज नहीं आ रहे थे। अपनी बात समझाने के लिए एक पुराने अनुभव का हवाला देना चाहूंगा।

वह ऑपरेशन सिंदूर का दूसरा दिन था। अपने प्रांतीय संपादकों से रोजमर्रा की कामकाजी चर्चा के दौरान मैंने उन्हें सलाह दी कि वे हर स्टेशन पर पता करें कि जिन ट्रेनों में हमारे फौजी सीमा की ओर कूच कर रहे हैं, उनके प्रति आम आदमी की भावना क्या है, मगर इसकी नौबत नहीं आई। साथियों का जवाब था कि अब अगर विशेष ट्रेनें चल भी रही हैं, तो उन्हें सिर्फ जरूरत पड़ने पर स्टेशन पर रोका जाता है। उस समय किसी सामान्य व्यक्ति का उस प्लेटफॉर्म पर प्रवेश वर्जित होता है। ऐसा सैनिकों की सुरक्षा और अभियान की गोपनीयता के लिए किया जा रहा है।

मैं चकित रह गया।

मेरी स्मृतियों में 1965 और 1971 का जंगी माहौल समूचे रोमांच के साथ सरसब्ज हो उठा। उन दिनों मेरे माता-पिता मिर्जापुर या इलाहाबाद के स्टेशनों पर बड़ी मात्रा में भोजन और पानी लेकर पहुंचते। हम उसे कृतज्ञतापूर्वक जवानों को सौंप खुद को धन्य महसूस करते। सैकड़ों लोग वहां उमड़ पड़ते थे। मैंने महिलाओं को उन जवानों को राखी बांधते और रो-रोकर दुआएं देते देखा है। मेरे पिता घर छोड़ने से पहले हर बार ताकीद करते, हाथ जोड़कर प्रणाम बोलना और जोर से ‘जय हिंद’ कहना मत भूलना। स्टेशन और उसके आस-पास उस समय गर्जना थिरक रही होती, आगे-आगे तुम बढ़ो, पीछे तुम्हारे साथ हैं।

वह कोरी भावुकता नहीं थी। देशवासियों का वह जज्बा हमारे पराक्रमियों को पराजय के ऐतिहासिक सिलसिले से बाहर निकालने के लिए प्रेरित कर रहा था। आज क्या हाल है?

क्या यह बदले वक्त का तकाजा है कि हमारी खोखली भावुकता अब सिर्फ की-बोर्ड पर थिरकती उंगलियों तक सीमित रह गई है?‌ सोशल मीडिया पर बजबजाते हुए तमाम भारतवंशी भूल जाते हैं कि हमारे कुछ हमवतन उनके शब्दबाणों से आहत हो रहे हैं। खुद को सेलिब्रिटी मानने और संविधान की शपथ लेकर मंत्री पद तक पहुंचने वाले भी इस उन्माद के शिकार हैं।

कुछ शर्मनाक उदाहरण पेश हैं।

संघर्ष के ‘सस्पेंस’ भरे दिनों में कर्नल सोफिया कुरैशी प्रतिदिन सैन्य कार्रवाई की जानकारी दिया करती थीं। यह मोदी सरकार का समझदारी भरा फैसला था। इसके जरिये समूची दुनिया को संदेश जा रहा था कि भारत के 140 करोड़ लोग मुट्ठी बांधे एक साथ खड़े हैं। इसी दौरान मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह का लिजलिजा बयान मीडिया में उभरा। उन्होंने अप्रत्यक्ष तौर पर कर्नल कुरैशी पर अभद्र टिप्पणी की थी। उनकी इस हरकत से न केवल देश आहत हुआ, बल्कि यह आशंका भी उत्पन्न हो गई कि भारत के दुश्मन इसका नाजायज उपयोग कर सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के आला नेतृत्व के हस्तक्षेप से उन्हें क्षमा मांगनी पड़ी, लेकिन उनका करा-धरा यहीं समाप्त नहीं हुआ। जबलपुर उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेते हुए उनके ऊपर मुकदमा दर्ज करने का आदेश जारी कर दिया। इंदौर पुलिस अब मामले की जांच कर रही है। देश की आला अदालत ने भी उनकी लानत-मलामत की है।

क्या विजय शाह अब भी कुर्सी पर बने रहने के हकदार हैं?

इसी तरह, खुद को राष्ट्रभक्तों का अगुआ बताकर सीना ठोकने वाले एक अवकाश प्राप्त मेजर साहब की करतूत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमें रक्षात्मक बनने के लिए विवश कर गई। उन्होंने ईरान के विदेश मंत्री के महत्वपूर्ण भारतीय दौरे के अवसर पर उनके लिए एक ऐसा शब्द कह डाला, जो अनुचित और अनैतिक था। ईरान ने इसका तत्काल संज्ञान लिया, लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने तत्परतापूर्वक कार्रवाई करते हुए मामले को बिगड़ने से बचा लिया।

और तो और, भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी भी सोशल मीडिया के इन आतताइयों के शिकार हुए। वह ऐसे अधिकारी हैं, जिन पर देश की प्रतिष्ठा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कायम रखने की जिम्मेदारी है। खुद को देशभक्त बताने वाले लोग खुल्लमखुल्ला उनको सपरिवार लांछित कर रहे थे। पहलगाम के नरमेध में मारे गए लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी नरवाल भी इस वैचारिक बर्बरता की शिकार बनीं। उन्होंने सिर्फ यही तो कहा था कि हमारी लड़ाई आतंकवादियों से है, मुसलमानों से नहीं। उस समय तक हिमांशी का दुख और हाथों की मेंहदी ताजा थी। दुर्भाग्य से सोफिया कुरैशी, विक्रम मिसरी और हिमांशी नरवाल जैसे हजारों हमवतन इस नफरती फौज के शिकार बने।

बाहरी हमलावरों से तो सेना लोहा ले सकती है, पर इनसे कौन पार पाएगा?

अब एक बार फिर सीमाओं की ओर लौटते हैं। पाकिस्तान ने इस दौरान कई ऐसे हथियारों का प्रयोग किया, जो चीन में बने थे। उनकी सफलता के दावे यकीनन अतिरंजित हैं, लेकिन तमाम प्रतिरक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन द्वारा उपलब्ध कराया गया साजो-सामान नई चुनौती खड़ी करता है। वह भी तब, जब चीन अगली पीढ़ी की जंगी सामग्री पाक को देने की तैयारी कर रहा है। संघर्ष के दौरान पाकिस्तान के साथ खुल्लमखुल्ला खड़े होकर उसने हमारे देश की सामरिक संवेदनशीलता को और बढ़ा दिया है। पूर्वोत्तर सीमा पर उसके सैनिक हैं और पश्चिमी सीमा पर उसके हथियार। दोनों देशों के बीच संघर्ष-विराम के ऐन बाद यह खबर भी आई कि उसने अरुणाचल प्रदेश के कई गांवों, कस्बों और शहरों के नाम बदल दिए हैं। बीजिंग का सत्ता-सदन 2017 से ऐसी अनाधिकार हरकतें करता आया है, पर भारत-पाक तनाव के बीच ऐसा करने की जरूरत क्या थी?

याद करें। भारत के दो पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह यादव खुलेआम कहा करते थे कि हमें चीन से असली खतरा है। इसे तब समाजवादी सोच का अतिवाद कहकर हंसी में उड़ा दिया जाता था। क्या वे वाकई अतिरंजना कर रहे थे?

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@shashishekhar.journalist

 

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