अपनी शौर्यगाथा खुद लिखनी होगी
अब हमें भी अपनी जरूरत भर की युद्धक सामग्री देश में बनाने की गति तेज करनी चाहिए। पाकिस्तान से झड़प में भारत में बने प्रक्षेपास्त्रों ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी है। इसके साथ पश्चिमी जहाजों और उपकरणों की सीमाएं जगजाहिर हुई…

वह 12 मई, 1947 का सरगोशी भरा दिन था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली अपने सरकारी आवास- 10, डाउनिंग स्ट्रीट के बैठकखाने में कुछ फौजियों के साथ बैठे थे। इनमें तीनों सेनाओं के चीफ ही नहीं, बल्कि दूसरे विश्व-युद्ध के महानायक फील्ड मार्शल बर्नार्ड लॉ मोंटगोमरी भी थे। विदेश नीति के कुछ जानकार भी इस बातचीत का हिस्सा थे। मुद्दा था, भारत की आजादी और उसका विभाजन।
बरतानवी इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान अदा करने वाले इन लोगों का मानना था कि भारत स्वभाव से समाजवादी किस्म का देश है। यदि हमने उसे जस का तस आजाद कर दिया, तो हो सकता है कि मॉस्को से चली वामपंथी आंधी हिंद महासागर तक पहुंच जाए। यह ब्रिटिश उपनिवेशवाद को गहरा झटका होगा। ये महानुभाव चाहते थे कि भारत और सोवियत संघ के बीच एक ऐसा ‘बफर स्टेट’ बने, जो पश्चिम के कहने पर चले। यही वजह है कि 14 अगस्त, 1947 से पाकिस्तान पश्चिम की गोद में जा बैठा, तो भारत ने 15 अगस्त, 1947 को गुटनिरपेक्षता का रास्ता अख्तियार किया।
उत्तर भारत में भड़के सांप्रदायिक दंगों की ज्वाला में हाथ जला चुके वायसराय लार्ड माउंटबेटन को भी तब तक लगने लगा था कि ये दोनों कौमें अब एक साथ नहीं रह सकतीं। इससे पहले वह भारत विभाजन के विरोधी हुआ करते थे। इसी के बाद माउंटबेटन लंदन गए और लौटकर 3 जून, 1947 को उन्होंने भारत की आजादी की तिथि एवं देश-विभाजन के फैसले की घोषणा की।
यह समय की चाल है या इतिहास की उलटबांसी? जिन वजहों से अंग्रेजों ने भारत-विभाजन कराया था, वे नाकाम साबित हो गई हैं।
पश्चिम की गोद से फिसलकर पाकिस्तान अब चीन से जुगलबंदी कर रहा है। सोवियत संघ अतीत की कहानी बन चुका है, पर संसार के सबसे बड़े परमाणु जखीरे का मालिक रूस अब बीजिंग का दोस्त है। ये तीनों मुल्क एटमी हथियारों से लैस हैं। एक अन्य अघोषित परमाणु शक्ति उत्तर कोरिया पहले से इस धुरी का हिस्सा है। दुनिया भर में इस नए समीकरण से बेचैनी है। इस बेचैनी को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने और हवा दे दी है। ‘टैरिफ वार’ की उनकी सनक ने दोस्तों और दुश्मनों के बीच का भेद खत्म कर दिया है। इससे समूची दुनिया में असमंजस और अनिश्चितता पसर गई है। शीत युद्ध के बदनाम दिन भी इससे बेहतर थे।
दुनिया के बदलते समीकरणों की ‘रीसेटिंग’ के इस दौर में हमारी भूमिका क्या है?
हम इतने भर से खुश नहीं हो सकते कि पाकिस्तान अपनी ऐतिहासिक भूल दोहरा रहा है। पहले वह पश्चिम के पहलू में बैठकर अपनी अर्थव्यवस्था को तबाह कर बैठा, अब वह बीजिंग का दरबारी बन अपने लिए दूसरा गड्ढा खोद रहा है। महाशक्तियां सिर्फ अपने कारज साधती हैं। आधुनिक अमेरिकी विदेश नीति के सर्जक हेनरी किसिंजर ने कभी कहा था- अमेरिका की दुश्मनी खतरनाक है, परंतु उसकी दोस्ती घातक। भले ही यह किसी अन्य संदर्भ में कही हुई बात हो, लेकिन यह महाशक्तियों और कमजोर देशों के रिश्तों को जरूर रूपायित करती है। भला घास और घोड़े में कभी कोई दोस्ती हुई है?
यही वह मुकाम है, जहां भारत को सोच-समझकर कदम रखने की जरूरत है। आप पूछ सकते हैं कि दुश्मन चीन के पाले में जा बैठा है, जिससे हमारा पुराना सीमा विवाद है। रूस भी चीन का पिछलग्गू है और वह 1971 जैसी मदद करने की स्थिति में नहीं रह बचा है। उल्टे उसने पाकिस्तान को भी एस-400 जैसे सामरिक उपकरण मुहैया कराने का फैसला कर लिया है। चीन भी पाकिस्तान को पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू जेट अगस्त तक सौंपने जा रहा है। पड़ोसी पर यह करम हमें महंगा पड़ सकता है। ऐसे में, मदद की उम्मीद किससे की जाए? यूरोप पहले से खस्ताहाल है। रह बचा अमेरिका, जिसकी दोस्ती ‘घातक’ है। फिर हमारे जैसे देश क्या करें?
जवाब मुश्किल जरूर है, पर असंभव नहीं। भारत अब विश्व की चौथी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुका है। हमने समन्वय के साथ आत्मनिर्भरता पर अद्भुत काम किया है। संसार के सर्वाधिक ग्रेजुएट हमारे पास हैं और किसी भी काम को अंजाम देने में सक्षम युवाओं की सबसे बड़ी फौज हमारी शक्ति है। आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे संस्थानों से निकले सैकड़ों भारतवंशी आज विश्व भर में पताका फहरा रहे हैं। यही वह मोड़ है, जब हमें अपने शिक्षित वर्ग का निर्यातक बनने के बजाय प्रतिभाओं का आयातक बनना चाहिए।
गूगल के आंकड़े गवाह हैं कि ट्रंप के चलते अमेरिकी विश्वविद्यालयों और शीर्ष संस्थानों की ‘सर्च’ में 25 फीसदी से अधिक की कमी आई है। यही नहीं, आज दस सर्वश्रेष्ठ शोध संस्थानों में से नौ चीन में हैं। कभी इस मामले में अमेरिका अव्वल हुआ करता था। हमें भी अपनी शिक्षा के स्तर में सुधार के साथ अपना अंदरूनी तंत्र इतना चाक-चौबंद करना होगा, ताकि विकासशील देशों से जो मेधावी भारत आएं, वे पढ़-लिखकर यहीं रह जाएं। चीन इसकी कोशिश कर रहा है, लेकिन हमारा सामाजिक लचीलापन ज्यादा आकर्षक साबित हो सकता है। सौभाग्य से विश्वस्तरीय शिक्षा का मूल ढांचा हमारे पास है, बस उसे नई जरूरतों के अनुसार ‘अपग्रेड’ करने की आवश्यकता है।
इसके साथ ही दूसरी ‘हरित क्रांति’ के जरिये हमें टॉप तीन अन्न निर्यातकों में एक बनना होगा। गौर कीजिए, यूक्रेन पर भयंकर हमले के बावजूद समूची दुनिया इसलिए उसके साथ खड़ी रही, क्योंकि वह खाद्यान्न के मामलों में शीर्ष निर्यातक देश है। हमारी तो सभ्यता ही कृषि प्रधान है, लेकिन युवाओं का उससे मोहभंग हो रहा है। आंकड़े गवाह हैं कि 1993-94 में जो कृषि क्षेत्र 64.5 प्रतिशत रोजगार देता था, वह 2023-24 में 46.1 फीसदी रह गया है। हमें इस महत्वपूर्ण मसले पर जरूरी कदम उठाने ही होंगे।
रही बात जंगी साजो-सामान की, तो जान लीजिए, हथियारों के सौदागर राजनीतिक ध्रुवों के हिसाब से नहीं सोचते, वे उपलब्ध रहेंगे, पर इतना पर्याप्त नहीं। अब हमें भी अपनी जरूरत भर की युद्धक सामग्री देश में बनाने की गति तेज करनी चाहिए। पाकिस्तान से झड़प में भारत में बने प्रक्षेपास्त्रों ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी है। इसके साथ पश्चिमी जहाजों और उपकरणों की सीमाएं जगजाहिर हुई हैं। तय है, हमें आयातक से निर्यातक बनना ही होगा। इस सिलसिले की शुरुआत हो चुकी है, पर इतना काफी नहीं है। जरूरी नहीं कि युद्ध के समय ही युद्धस्तर पर काम किया जाए। महान राष्ट्रों के निर्माण के लिए शांतिकाल में भी अपने ढीलेपन और परंपरागत सोच से जंग लड़ने की जरूरत पड़ती है।
चीन ने यही किया, आज वह शीर्ष पर पहुंचने को बेताब है। पाकिस्तान ने इसका उल्टा रास्ता अख्तियार किया, नतीजा सामने है। मध्य मार्ग पर चलते हुए हमने काफी कुछ अर्जित किया है, पर अब खड़ी ऊंचाइयों की ओर सरपट दौड़ने का वक्त आ गया है। इसके लिए हौसला और संसाधन जुटाने ही होंगे। यहां एक नाइजीरियाई कहावत याद आ रही है- जब तक शेर लिखना नहीं सीखेंगे, तब तक शिकारियों की शौर्यगाथाएं गाई जाती रहेंगी।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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