जाति-जनगणना के बाद बहुत काम
यह बात पाठकों को पता ही है कि मैंने हाल ही में जाति-जनगणना के ईद-गिर्द हो रही बातचीत के संदर्भ में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से पत्र के माध्यम से संपर्क किया था। संविधान की नौवीं अनुसूची में बढ़े हुए राज्य आरक्षण कोटा को शामिल करने की मेरी मांग…

तेजस्वी यादव,नेता प्रतिपक्ष, बिहार विधानसभा
यह बात पाठकों को पता ही है कि मैंने हाल ही में जाति-जनगणना के ईद-गिर्द हो रही बातचीत के संदर्भ में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से पत्र के माध्यम से संपर्क किया था। संविधान की नौवीं अनुसूची में बढ़े हुए राज्य आरक्षण कोटा को शामिल करने की मेरी मांग पर मुख्यमंत्री की चुप्पी ने एक बार फिर सामाजिक न्याय के मुद्दों पर एनडीए की तथाकथित डबल इंजन सरकार के पाखंड को उजागर कर दिया है।
उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है। यह स्पष्ट रूप से गरीबों, शोषितों, और हाशिये पर पड़े लोगों के प्रति उनकी गहरी वैचारिक विपन्नता को दर्शाता है। दरअसल, राष्ट्रव्यापी जाति-जनगणना के संदर्भ में एनडीए की अनिच्छा राजनीतिक, वैचारिक और चुनावी गणनाओं के संयोजन में अंतर्निहित रही। भाजपा को यह मुद्दा असहज करता था, क्योंकि उनकी राजनीति एकांगी धार्मिक पहचान बनाकर ध्रुवीकरण की रही है। उसे डर था और है भी कि व्यापक जाति-जनगणना जाति आधारित असमानताओं पर ठोस आंकड़े पेश करेगी, जिससे सार्वजनिक नीति में जाति की प्रासंगिकता मजबूत होगी, जो भाजपा के काल्पनिक विकास के पसंदीदा आख्यान के विपरीत है।
भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और महत्वपूर्ण वोट आधार, विशेष रूप से हिंदी पट्टी में दबदबे वाली जातियों के ईद-गिर्द ही रहा है। जाति-जनगणना ओबीसी, एससी और एसटी के प्रतिनिधित्व व सत्ता तक उनकी पहुंच से दूरी को उजागर कर देगी। भाजपा को डर है कि जाति-जनगणना से जनसंख्या अनुपात के आधार पर आरक्षण बढ़ाने की मांग बढ़ सकती है। यह डर सामाजिक न्याय के लिए हमारी वैध मांगों के प्रति उनके प्रतिरोध को प्रेरित करता है। विस्तृत जाति डाटा ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित और हाशिये पर पड़े समूहों को आरक्षण पुनर्गठन और लक्षित कल्याणकारी योजनाओं के लिए एक शक्तिशाली चुनावी और नीतिगत हथियार प्रदान करेगा। हमारे जैसे विपक्षी दल जाति-जनगणना के लिए जोर दे रहे हैं, क्योंकि यह संविधान में की गई प्रतिबद्धताओं को मजबूत करता है। जाति-जनगणना आरक्षण को इस तरह से पुनर्गठित करने के लिए अनुभव-जन्य आधार प्रदान करती है, जो जमीनी स्तर पर वास्तविक सामाजिक-आर्थिक हकीकत को दर्शाती है। इससे समानता व सामाजिक न्याय का सांविधानिक वादा पूरा होता है।
यही कारण है कि मैं बिहार में आरक्षण को बढ़ाकर 85 प्रतिशत करने के लिए नए कानून के जरिये ठोस कार्रवाई की मांग कर रहा हूं। हमें नौवीं अनुसूची के माध्यम से केंद्र के समर्थन की आवश्यकता है, क्योंकि सांविधानिक संरक्षण के बिना, इन प्रगतिशील उपायों को चुनौती दी जा सकती है और इनको कमजोर किया जा सकता है। न्यायपालिका द्वारा लगाई गई 50 प्रतिशत की अवैज्ञानिक सीमा को चुनौती देने की जरूरत है, जो न तो लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है और न ही हमारी सामाजिक संरचना का।
कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि जाति-जनगणना के आंकड़े भारत के अत्यधिक विषम विकास के मानचित्र को सुधारने के लिए आवश्यक हैं, जिसमें कुछ समूहों को लगातार बड़ा हिस्सा प्राप्त हो रहा है। आरक्षण नीति को समकालीन जनसांख्यिकीय व सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के हिसाब से न्यायोचित बनाने की आवश्यकता है। जाति-जनगणना अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के भीतर विभिन्न उप-समूहों के वास्तविक प्रतिनिधित्व और अभाव के स्तर पर अनुभवजन्य स्पष्टता प्रदान करेगी। इस जनगणना के निष्कर्षों के आधार पर आरक्षण का बढ़ा हुआ कोटा शिक्षा, रोजगार और शासन में हाशिये पर पड़े समुदायों के ऐतिहासिक रूप से कम प्रतिनिधित्व को संबोधित करने के लिए एक महत्वपूर्ण सुधारात्मक उपाय के रूप में काम करेगा। साथ ही, निजी क्षेत्र को उनकी रोजगार नीति में विविधता को प्रतिबिंबित करने में भी मदद करेगा।
मुझे इस बात से परेशानी है कि केंद्र सरकार लंबे समय से इस मुद्दे पर कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखा रही है। मैंने बिहार की राजनीति में इस दोहरेपन को प्रत्यक्ष रूप से देखा है। भाजपा चुनावों के दौरान पिछड़े वर्गों को समर्थन देने की बात करती है, लेकिन जब हमारे 85 प्रतिशत आरक्षण की मांग का समर्थन करने या नौवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए दबाव बनाने जैसी ठोस कार्रवाई की बात आती है, तो वे चुप्पी साध लेते हैं। न्यायपालिका के गलियारों में छद्म संगठनों द्वारा इसे विफल करने के प्रयास किए गए। यदि भाजपा और एनडीए के उनके सहयोगी, विशेष रूप से बिहार में, लगभग बीस वर्षों तक शासन करने के बाद इतना कुछ नहीं कर सके हैं, तो हाल ही में घोषित आधी-अधूरी राष्ट्रीय जाति-जनगणना के बाद उनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। भाजपा की समग्र अनिच्छा न तो प्रशासनिक चुनौतियों से और न ही तार्किक चुनौतियों से उपजी है, बल्कि यह राजनीतिक आशंकाओं की उपज है : जाति-जनगणना उसके उस सामाजिक गठबंधन को उलट सकती है, जिस पर वह निर्भर है। यह गणना सामाजिक न्याय की अधूरी चिंताओं को पुनर्जीवित कर सकती है और भारतीय समाज के वैचारिक ढांचे को चुनौती दे सकती है।
जैसा कि हम सब जानते हैं, एक पूर्ण, पारदर्शी जाति-जनगणना भाजपा के लिए असहज सच्चाई प्रस्तुत कर सकती है, जिसे अब वह घुमा-फिराकर या दबाकर नहीं रख सकती। जाति के आंकड़े विभिन्न जाति समूहों व उप-समूहों की वास्तविक संख्या तो बताएंगे ही, विभिन्न क्षेत्रों में उनके प्रतिनिधित्व को प्रकट करेंगे, जिससे भाजपा के लिए वास्तविक सशक्तीकरण को नकारते हुए अपनी बयानबाजी तक उसे सीमित रखना असंभव हो जाएगा। बिहार में आरक्षण-सीमा में वृद्धि व विशेष विधानसभा सत्र की मेरी मांग दरअसल पारदर्शिता और न्याय की इस बड़ी लड़ाई का हिस्सा है। मेरी अपील है कि हम खोखले वादों से आगे बढ़कर ठोस विधायी कार्रवाई करें, जो सांविधानिक संरक्षण के माध्यम से न्यायिक जांच का भी सामना कर सके।
सभी राजनीतिक दलों के लिए यह चुनने का समय आ गया है कि वे समानता के सांविधानिक वादे के साथ खड़े हैं या उन ताकतों के साथ हैं, जो ऐतिहासिक विशेषाधिकारों को संरक्षित करना चाहते हैं। व्यापक जाति-जनगणना एक सच्चे लोकतंत्र के निर्माण की दिशा में पहला कदम है, जिसकी नीतियां तथ्यों पर आधारित होती हैं, जहां संसाधनों का उचित आवंटन होता है और प्रत्येक नागरिक को राष्ट्र की प्रगति में उसका उचित स्थान मिलता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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