भक्तों को साथ लिए रथ-यात्रा पर कैसे निकले प्रभु जगन्नाथ
Jagannath Rath Yatra 2025: प्राचीनकाल से चली आ रही रथ-यात्रा के प्रति लोगों के मन में चैतन्य महाप्रभु ने विशेष भाव जगाया। अब जब जगन्नाथ पुरी में रथ-यात्रा निकलती है, तब दुनियाभर से लाखों की संख्या में यहां आए लोग इस भव्य आयोजन के साक्षी बनते हैं।

प्राचीनकाल से चली आ रही रथ-यात्रा के प्रति लोगों के मन में चैतन्य महाप्रभु ने विशेष भाव जगाया। उन्होंने कृष्ण भक्ति को भजन-कीर्तन और नृत्य से जोड़कर रथ-यात्रा को और भी रसमय बना दिया। अब जब जगन्नाथ पुरी में रथ-यात्रा निकलती है, तब दुनियाभर से लाखों की संख्या में यहां आए लोग इस भव्य आयोजन के साक्षी बनते हैं। रथ-यात्रा की यह प्रथा सतयुग से चली आ रही है। रथ-यात्रा का प्रसंग स्कंद पुराण, पद्म पुराण, पुरुषोत्तम-माहात्म्य आदि ग्रंथों में वर्णित हुआ है।
इस रथ-यात्रा का उद्देश्य यह है कि वे लोग जो संपूर्ण वर्ष भर में मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकते हैं उन्हें भगवान के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो। यह रथ-यात्रा का बाह्य कारण है, किंतु इसके गूढ़ रहस्य को श्रीचैतन्य महाप्रभु ने प्रकटित किया है। श्रीजगन्नाथ मंदिर द्वारका या कुरुक्षेत्र सदृश है और गुंडिचा मंदिर वृंदावन का प्रतीक है।
श्रीकृष्ण से पुनर्मिलन
श्रीकृष्ण जन्म से लेकर ग्यारह वर्ष तक ब्रज में रहे और वहां उन्होंने अपनी मधुरातिमधुर लीलाओं के द्वारा ब्रजवासियों को आनंद प्रदान किया। जरासंध के बार-बार मथुरा पर आक्रमण करने पर मथुरावासियों की रक्षा के लिए वे उन सबको रात-ही-रात में द्वारका ले गए।
श्रीकृष्ण के ब्रज से चले जाने पर समस्त ब्रजवासी उनके वियोग में अत्यंत दुखी हो गए। अनेक वर्षों के पश्चात सूर्य-ग्रहण के अवसर पर कुरुक्षेत्र में ब्रजवासियों का श्रीकृष्ण से पुनर्मिलन हुआ।
श्रीकृष्ण से मिलकर गोपियों का विरह ताप कुछ कम हुआ, परंतु वहां श्रीकृष्ण को राजसी वेश-परिवेश में देखकर गोपियों के हृदय में मिलन का वैसा अद्भुत आनंद नहीं हुआ, जैसा उन्हें वृंदावन में श्रीकृष्ण के साथ मिलने पर होता था। तब गोपियों में सर्वश्रेष्ठ श्रीराधाजी ने कहा- “हे कृष्ण! हमारा मन वृंदावन है और आप हमारे हृदयरूपी रथ पर विराजमान होकर हमारे साथ उस वृंदावन में चलें, जहां हमारे साथ आपकी मधुरातिमधुर प्रेममयी लीलाएं हुई थीं।”
श्रीराधाजी के भावों में भाव विभोर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इन्हीं भावों को श्रीजगन्नाथजी की रथ-यात्रा के समय प्रकाशित किया था।
मन् चैतन्य महाप्रभु के पुरी आने से पूर्व रथ-यात्रा के समय श्रीजगन्नाथदेव, श्रीबलदेव प्रभु और श्रीसुभद्राजी के रथों को राजा के सेवक और हाथी ही खींचते थे।
चैतन्य महाप्रभु ने ही अहैतुकी कृपापूर्वक अपने परिकरों के साथ कीर्तन-नृत्य के द्वारा अपने आंतरिक भावों को प्रकट कर रथ-यात्रा को भक्ति रसमय बना दिया और इस रस के आस्वादन के लिए बंगाल, उड़ीसा और भारत वर्ष के अन्य स्थानों से हजारों-लाखों की संख्या में भक्त लोग प्रति वर्ष रथ-यात्रा में आने लगे।
रथ-यात्रा आरंभ होने वाले दिन प्रातःकाल विश्ववासु के गांव के दयिताओं के वंशज श्रीजगन्नाथ, श्रीबलदेव और श्रीसुभद्राजी को मंदिर से लाकर रथों पर बैठाते हैं। अनेक बलशाली दयिता उन्हें बड़ी कठिनाई से उठाकर रथ के निकट लाते हैं और रस्सियों तथा कपड़ों से बांधकर उन्हें रथ पर चढ़ाने का प्रयास करते हैं।
प्रभु से खूब ठिठोली
श्रीजगन्नाथजी को रथ पर चढ़ाना बड़ा कठिन कार्य होता है और दयिता उन्हें गोपियों की भांति प्रेम में विभोर होकर ठिठोली करके ऊपर उठाते हैं। कभी श्रीजगन्नाथजी पुनः नीचे आ जाते हैं तो दयिता कहते हैं कि हम यह नहीं जानते कि तुमने कहां जन्म लिया है और तुम्हारे माता-पिता कौन हैं? कोई तुम्हें वसुदेवनंदन कहता है और कोई नंदनंदन, किंतु तुम हो कौन, यह तो बतलाओ? इस प्रकार ठिठोली करते हए दयितायों को श्रीजगन्नाथजी को रथ पर चढ़ाने के लिए तीन-चार से लेकर छह घंटे और कभी-कभी पूरा दिन भी लग जाता है।
रथ पर पीछे जगन्नाथ
इस प्रकार जब श्रीजगन्नाथ देव, श्रीबलदेव प्रभु और श्रीसुभद्राजी नवीन विशाल रथों पर विराजमान हो जाते हैं, तब रथ-यात्रा प्रारंभ होती है। श्रीबलदेव प्रभु का रथ सबसे आगे, उनके पीछे श्रीसुभद्राजी और सबसे पीछे श्रीजगन्नाथ देव का रथ होता है। प्रतिवर्ष श्रीजगन्नाथ देव की रथ-यात्रा प्रारंभ होने से पूर्व उड़ीसा के राजा रथ चलनेवाले मार्ग पर झाड़ू लगाकर उसे साफ करते हैं। यह प्रथा प्राचीन काल से ही है।
भक्तों को साथ लिया
जब भगवान श्रीजगन्नाथदेव का रथ गुंडिचा मंदिर की ओर चलने के लिए प्रस्तुत हो गया, तब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने सभी भक्तों को एकत्रित किया और स्वयं अपने कर कमलों से उन्हें पुष्प मालाओं और चंदन से अलंकृत किया। इसके उपरांत श्रीमन् महाप्रभु ने अपने अंतरंग परिकरों को कीर्तन के लिए चार मंडलियों में विभक्त कर दिया। प्रत्येक मंडली में छह जन गानेवाले तथा दो मृदंग बजानेवाले थे। प्रत्येक मंडली में दो-दो मृदंग देकर श्रीमन् महाप्रभु ने कीर्तन प्रारंभ करने का आदेश दिया। श्रीमन् महाप्रभु ने तीन और मंडलियों का गठन किया। पहली मंडली कुलीन ग्राम के गृहस्थ भक्तों की थी, दूसरी शांतिपुर के भक्तों की थी और तीसरी श्रीखंड से आए भक्तों की थी।
चैतन्य महाप्रभु ने किया नृत्य
भक्तों को कीर्तन के लिए विभिन्न मंडलियों में विभाजित करने के उपरांत श्रीचैतन्य महाप्रभु ने स्वयं नृत्य करना आरंभ किया। एक ही श्रीचैतन्य महाप्रभु ने उस समय अपने को सात रूपों में प्रकाश किया और एक साथ सातों मंडलियों में नृत्य-गान करने लगे।
उनके नेत्रों से निरंतर अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी और वे उसी प्रकार तीव्र गति से नृत्य करने लगे, जिस प्रकार श्रीकृष्ण अपनी लीला में नृत्य करते थे। श्रीमन् महाप्रभु के एक साथ सभी मंडलियों में प्रकटित होने पर भी प्रत्येक मंडली के भक्त इस प्रकार सोच रहे थे कि श्रीमन् महाप्रभु केवल उनके साथ ही हैं और वे सभी प्रसन्न होकर नृत्य और गान कर रहे थे।
चारों ओर कृष्ण ही कृष्ण
श्रीकृष्ण भी अपनी लीला में अपने परिकरों को ऐसा ही आनंद प्रदान करते हैं। जब भांडीर वन में श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ भोजन करने बैठे थे, तब उनके अनेकानेक सखा उनके चारों ओर बैठे थे। कुछ सखा उनके सामने थे, कुछ सखा उनके दोनों ओर, कुछ सखा उनके पीछे थे, कुछ सखा निकट थे और कुछ सखा बहुत दूर थे।
सभी सखाओं को यही प्रतीत हो रहा था कि श्रीकृष्ण केवल मात्र उनके सामने ही बैठे हैं और उनके साथ भोजन कर रहे हैं। प्रत्येक सखा को यही प्रतीत हो रहा था कि- “मैं श्रीकृष्ण को खिला रहा हूं और वे मुझे खिला रहे हैं।”