Hindustan Special: अवध के नवाब ने बरेली शहर में इमामबाड़ा को दी कर्बला की पहचान, जानिए कैसे
अजादारी और इमाम हुसैन की याद का गवाह बरेली शहर में छीपी टोला का बेहद कदीमी इमामबाड़ा फतेह अली शाह मारूफ उर्फ काला इमामबाड़ा के नाम से जाना जाता है।

अजादारी और इमाम हुसैन की याद का गवाह बरेली शहर में छीपी टोला का बेहद कदीमी इमामबाड़ा फतेह अली शाह मारूफ उर्फ काला इमामबाड़ा के नाम से जाना जाता है, जिसे सवा दो सौ साल पहले अवध के नवाब आसिफउद्दौला ने तामीर कराया था। इमामबाड़े की खासियत यह है कि यहां इराक के कर्बला से आई जरी मौजूद है और उस पर आयत लिखी हैं।
बरेली के इमामबाड़े का गेट तीस फीट ऊंचा है। इमामबाड़े में तीन हिस्से हैं, जिसमें सबसे अंदर इमाम हुसैन के रौजे की शबीह रखी है। इसकी जालियां हूबहू इमाम हुसैन के रौजे जैसी हैं। इमामबाड़े में दो सौ साल पहले नौहाख्वानी के समय बजने वाली चकचकी लकड़ी के गुटके भी अभी तक सुरक्षित हैं। इसको आठ मुहर्रम के दिन फारसी नौहे के साथ बुजुर्ग बजाते हुए जुलूस में साथ-साथ चलते हैं।
अवध लौटते समय नवाब ने तामीर कराया इमामबाड़ा
हाजी अजहर अब्बास नकवी बताते हैं कि नवाब मिर्जा मुहम्मद यहया अगानी जो आसिफउद्दौला नाम से मशहूर थे 1775 ई. में मसनदनशीन हुए। 1794 ई. में नवाब दो जोड़ा नदी के पास हुई निद्दू खानी जंग फतह करके अवध लौट रहे थे तो मौजा सुर्खी जो जंगल था, वहां से ढोल, ताशे और फारसी नौहे की आवाज सुनायी दी। नवाब ने लश्कर रुकने का हुक्म देकर आवाज की दिशा का पता कराया। सिपाहियों ने ढूंढा तो फूस की झोपड़ी में रहने वाले फकीर फतेह अली शाह यादे इलाही और मातमे हुसैन में गिरिया करते मिले। नवाब ने मजलिस का तबर्रुक लिया। इसके बाद उन्होंने शाह साहब से उस जगह पर इमामबाड़ा बनवाने की ख्वाहिश जाहिर की। इजाजत मिलने पर इमामबाड़ा तामीर कराया जाने लगा। मुहर्रम शुरू होने तक छत और दीवारें बन गये थे लेकिन प्लास्टर नहीं हो सका था।
ऐसे रखा काला इमामबाड़ा नाम
नवाब के हुक्म पर इमामबाड़े की छत पर काली कनात और दीवारों पर काले परदे लगा दिये गए। इसलिए इसका नाम काला इमामबाड़ा पड़ा। तीसरे दर्जे में रखी जरी फोल्डिंग है जो नवाब के हुक्म पर बरेली के गर्वनर हुसैन अली ने इराक के कर्बला शहर से मंगाई थी। इमामबाड़े की हद में दरगाह हजरत अब्बास भी है जिसका निमार्ण बाद में हुआ। यह इमामबाड़ा बरेली के शिया मुसलमानों के लिए मरकजी हैसियत रखता है।