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इनाम अधूरा, इंतजार पूरा: 2003 से 2025 तक राजनीतिक नियुक्तियों में सुस्ती का रिपीट मोड

राजस्थान की सियासत में सरकारें भले ही बदलती रही हों, लेकिन एक परंपरा जस की तस बनी रही—राजनीतिक नियुक्तियों में देरी। सत्ता में आने से पहले जो कार्यकर्ता जीत की जमीन तैयार करते हैं, वही सत्ता आने के बाद हाशिए पर चले जाते हैं।

Sachin Sharma लाइव हिन्दुस्तानWed, 25 June 2025 08:15 PM
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इनाम अधूरा, इंतजार पूरा: 2003 से 2025 तक राजनीतिक नियुक्तियों में सुस्ती का रिपीट मोड

राजस्थान की सियासत में सरकारें भले ही बदलती रही हों, लेकिन एक परंपरा जस की तस बनी रही—राजनीतिक नियुक्तियों में देरी। सत्ता में आने से पहले जो कार्यकर्ता जीत की जमीन तैयार करते हैं, वही सत्ता आने के बाद हाशिए पर चले जाते हैं। 2003 से लेकर 2025 तक, चाहे भाजपा की सरकार रही हो या कांग्रेस की, नियुक्तियों का वही ‘कछुआ मॉडल’ चलता रहा है। पहले सत्ता, फिर संतुलन और तब कहीं जाकर आती हैं राजनीतिक नियुक्तियां।

राजस्थान में हर नई सरकार आने के बाद नियुक्तियों की प्रक्रिया महीनों—कई बार वर्षों—तक ठंडी पड़ी रहती है। कार्यकर्ता सत्ता की भागीदारी के सपने लेकर चलते हैं, लेकिन हकीकत में उन्हें ‘सब्र का फल’ ही मिल पाता है।

हर सरकार में एक ही पैटर्न: देरी और अंत में टोकन अपॉइंटमेंट्स

राजस्थान में राजनीतिक नियुक्तियों का इतिहास देखेंगे तो एक साफ ट्रेंड नजर आता है—सत्ता में आते ही पार्टियां वादा तो करती हैं, लेकिन उसे निभाने में महीनों नहीं, सालों लग जाते हैं। 2003 में जब पहली बार वसुंधरा राजे सत्ता में आईं, तब संघ से तनाव और संगठनात्मक असंतुलन के चलते लगभग एक साल बाद जाकर नियुक्तियों की प्रक्रिया शुरू हो सकी। 2008 में अशोक गहलोत की सरकार बनी तो दो साल तक खामोशी रही, और फिर धीरे-धीरे कुछ नियुक्तियां की गईं।

2013 की भाजपा सरकार भी लगभग 18 महीने बाद इस दिशा में सक्रिय हुई। 2018 में गहलोत सरकार में पायलट संग शक्ति संघर्ष और फिर कोविड ने देरी की पटकथा लिख दी। और अब 2023 में बनी भजनलाल शर्मा सरकार डेढ़ साल बाद भी सिर्फ 22 नियुक्तियों पर ही पहुंच सकी है, वो भी बिना मंत्री दर्जे के।

क्या कहता है डेटा: साल-दर-साल की नियुक्तियों की कहानी

वर्ष मुख्यमंत्री पार्टी नियुक्तियां शुरू कब हुईं कुल औसत नियुक्तियां देरी के कारण

2003 वसुंधरा राजे भाजपा 12 माह बाद (2004 अंत) 60 संघ-राजे तनाव, संतुलन की कोशिश

2008 अशोक गहलोत कांग्रेस 24 माह बाद (जनवरी 2011) 30 गुटबाजी, हाईकमान की हिचक

2013 वसुंधरा राजे भाजपा 18 माह बाद (जुलाई 2015) 70 केंद्र दखल, संगठन असंतुलन

2018 अशोक गहलोत कांग्रेस 16 माह बाद (अप्रैल 2020) 128 गहलोत-पायलट संघर्ष, कोविड प्रभाव

2023 भजनलाल शर्मा भाजपा लंबित (जून 2025 तक) 22 (अब तक) संघ समन्वय, दिल्ली से स्वीकृति की देरी

मुख्य कारण जो नियुक्तियों को बनाते हैं धीमा

1. गुटबाजी और संतुलन की मुश्किल:

हर पार्टी में खेमे होते हैं। एक गुट को नियुक्ति दी, तो दूसरा नाराज। लिहाजा टालना ही आसान रास्ता बन जाता है।

2. हाईकमान की हरी झंडी:

भाजपा में दिल्ली का दखल ज्यादा होता है, वहीं कांग्रेस में भी सोनिया-राहुल से मंजूरी का इंतजार होता है। फाइलें बिना अनुमति आगे नहीं बढ़तीं।

3. नई सरकार की प्राथमिकताएं:

प्रारंभिक महीनों में बजट, प्रशासनिक संतुलन, लॉ एंड ऑर्डर जैसे मुद्दे हावी रहते हैं। इस फेर में राजनीतिक नियुक्तियां पीछे रह जाती हैं।

4. अफसरशाही का टालू रवैया:

फाइलों की चक्करखोरी, अनुमोदन प्रक्रिया में विलंब और सचिवालय की निष्क्रियता भी बड़ी वजह बनती है।

लाइजनिंग और सेटिंग: नई राजनीति का अनकहा सच

एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि अब नियुक्तियां सिर्फ मेहनत या निष्ठा से नहीं, बल्कि "लाइजनिंग और सेटिंग" के दम पर होती हैं। हर नियुक्ति अब सियासी गणित का हिस्सा होती है—किसे साधना है, किस गुट को खुश करना है, किससे दबाव है। नतीजा, ज़मीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता बस इंतजार करते रह जाते हैं।

विश्लेषण: कांग्रेस बनाम भाजपा – कौन कितना अलग?

पूर्व कांग्रेस प्रवक्ता सतेंद्र राघव का कहना है कि कांग्रेस में नियुक्तियों को लेकर सिंगल टू विंडो सिस्टम काम करता है, जहां मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष की सीधी भूमिका होती है। वहीं भाजपा में नियुक्ति की प्रक्रिया बहुस्तरीय और जटिल है। इसमें संघ, केंद्रीय नेतृत्व, प्रदेश संगठन और मुख्यमंत्री—सभी की भूमिका होती है। यही वजह है कि भाजपा में नियुक्तियों को लेकर फ़ैसले लंबा समय लेते हैं और कई बार कार्यकर्ता थक-हारकर दूर हो जाते हैं।

क्या हो सकता है हल?

राजनीतिक विश्लेषकों की राय में दोनों ही प्रमुख पार्टियों को कार्यकर्ताओं के लिए स्पष्ट और पारदर्शी नियुक्ति नीति बनानी चाहिए। यदि पदों की संख्या सीमित भी हो, तब भी चरणबद्ध तरीके से नियुक्तियों की समय-सीमा तय की जाए। इससे कार्यकर्ताओं में भरोसा बना रहेगा और संगठन की शक्ति भी मजबूत होगी।

आखिर सवाल यह है…

जब हर चुनाव में कार्यकर्ताओं की मेहनत से ही सरकारें बनती हैं, तो सत्ता में आने के बाद वही कार्यकर्ता उपेक्षित क्यों हो जाते हैं? क्यों नियुक्तियों की प्रक्रिया बार-बार लंबित रहती है? और कब तक यह "पहले सत्ता, फिर संतुलन, तब कहीं नियुक्ति" वाला मॉडल चलता रहेगा?

यदि राजनीतिक दल इस ‘देरी के ढर्रे’ को नहीं तोड़ते, तो आने वाले चुनावों में यह कार्यकर्ताओं की निष्ठा और मनोबल दोनों को कमजोर कर सकता है। सत्ता पाने के लिए जिन कंधों का सहारा लिया जाता है, यदि वही कंधे कमजोर हो जाएं तो सत्ता की नींव भी हिल सकती है।

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