32 साल बाद मिला न्याय; पोस्टमास्टर की छोटी सी गलती और काटने पड़े HC के चक्कर
यह मामला एक छोटी सी क्लर्कियल गलती से शुरू हुआ था। साल 1983 में एक जांच में पता चला कि पोस्टमास्टर मनकाराम ने ब्रांच रजिस्टर में 3,596 रुपये जमा करने की एंट्री नहीं की थी। हालांकि,यह राशि सरकारी खजाने में सही ढंग से जमा हो गई थी और खाताधारक की पासबुक में भी दिख रही थी।

मध्य प्रदेश के बैतूल के एक पोस्टमास्टर को एक छोटी सी गलती के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ गई। न्याय तो मिला पर इसके लिए पोस्टमास्टर तो तीन दशक से भी ज्यादा का समय लग गया। अब मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने उसकी सजा को आपराध न मानकर विभागीय चूक मानते हुए बरी कर दिया। आइए जानते हैं पोस्टमास्टर की वो गलती क्या थी जिसके लिए उसे 32 साल बाद न्याय मिल पाया।
यह मामला एक छोटी सी क्लर्कियल गलती से शुरू हुआ था। साल 1983 में एक जांच में पता चला कि पोस्टमास्टर मनकाराम ने ब्रांच रजिस्टर में 3,596 रुपये जमा करने की एंट्री नहीं की थी। हालांकि,यह राशि सरकारी खजाने में सही ढंग से जमा हो गई थी और खाताधारक की पासबुक में भी दिख रही थी।
भले ही इस मामले में कोई वित्तीय गड़बड़ी नहीं थी,फिर भी इस गलती को आपराधिक गबन माना गया। साल 1993 में,निचली अदालत ने मनकाराम को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 409 (लोक सेवक द्वारा आपराधिक विश्वासघात) के तहत दोषी ठहराया। उन्हें जेल की सजा सुनाई गई और 3,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया। मनकाराम ने इस फैसले के खिलाफ अपील की,लेकिन सत्र न्यायालय ने भी दोषसिद्धि को बरकरार रखा। हालांकि,उन्होंने हार नहीं मानी और न्याय की तलाश में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का रुख किया। इस प्रक्रिया में उन्हें परिणाम मिलने में 32 साल लग गए।
32 साल बाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति एम.एस. भट्टी ने निचली अदालत के फैसले को पलट दिया और मनकाराम को बरी कर दिया। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि यह गलती केवल एक विभागीय चूक थी,आपराधिक अपराध नहीं। जज ने इस बात पर जोर दिया कि निचली अदालतों को ऐसे फैसले सुनाने से पहले यह जांचना चाहिए कि क्या कोई काम आपराधिक इरादे से किया गया था।