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कौन हैं अल्ताफ हुसैन, जिन्होंने PM मोदी से मांगी मुहाजिरों के लिए मदद; कराची में 'भाई' का दबदबा

अल्ताफ हुसैन का जन्म 17 सितंबर, 1953 को नाजिर हुसैन और खुर्शीद बेगम के घर पर कराची में हुआ था। उनके पिता नाजिर हुसैन यूपी के आगरा के नाई की मंडी इलाके में रहते थे। विभाजन के बाद वह पाकिस्तान गए। वह भारतीय रेलवे में अधिकारी थे और उनकी आगरा में पोस्टिंग थी।

Surya Prakash लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्लीWed, 28 May 2025 11:13 AM
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कौन हैं अल्ताफ हुसैन, जिन्होंने PM मोदी से मांगी मुहाजिरों के लिए  मदद; कराची में 'भाई' का दबदबा

पाकिस्तान की मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट पार्टी के नेता अल्ताफ हुसैन ने पीएम नरेंद्र मोदी की तारीफ की है। मुहाजिरों के नेता अल्ताफ हुसैन 1992 से ही निर्वासित जीवन जी रहे हैं और फिलहाल लंदन में हैं। उन्होंने भारत सरकार से अपील की है कि मुहाजिरों की मदद करें, जिनका पाकिस्तान में उत्पीड़न हो रहा है। अल्ताफ हुसैन ने 1986 में मुहाजिरों के अधिकारों के लिए एक दल बनाया था- जिसका नाम था मुहाजिर कौमी मूवमेंट यानी MQM। इस दल का नाम अभी अंग्रेजी शॉर्ट फॉर्म में MQM ही हैं, लेकिन पहले वाले एम का अर्थ अब मुहाजिर की जगह मुत्ताहिदा हो गया है। इसकी वजह भी यह थी कि मुहाजिरों के नाम पर जब अलगाववाद के आरोप लगे तो उन्होंने मुत्ताहिदा जोड़ लिया।

एक समय में अल्ताफ हुसैन का इतना जलवा कराची में था कि कहा जाता है कि उनकी इजाजत के बिना पत्ता तक नहीं हिलता था। उन्हें 'भाई' कहा जाता है। अल्ताफ हुसैन का ग्राफ बीते कुछ सालों में नीचे गया है, लेकिन 2018 के चुनाव से पहले तक उनका बहुत जोर था। खासतौर पर सिंध में उनका जलवा रहा है। उन्होंने पाकिस्तान में रह रहे करोड़ों मुहाजिरों को आवाज दी है। पाकिस्तान में पश्तून, सिंध और बलूचों के बीच असंतोष रहा है। वे पंजाबी प्रभुत्व के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। वहीं मुहाजिरों की पहचान तो पाकिस्तान में बाहरियों की बना दी गई और वे दशकों से उत्पीड़न के शिकार हैं। उनकी ही आवाज सालों से अल्ताफ हुसैन बने हुए हैं।

कौन हैं अल्ताफ हुसैन और कैसे हुआ उभार

अल्ताफ हुसैन का जन्म 17 सितंबर, 1953 को नाजिर हुसैन और खुर्शीद बेगम के घर पर कराची में हुआ था। उनके पिता नाजिर हुसैन यूपी के आगरा के नाई की मंडी इलाके में रहते थे। विभाजन के बाद वह पाकिस्तान गए। वह भारतीय रेलवे में अधिकारी थे और उनकी आगरा में पोस्टिंग थी। उनके पिता और मां पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं थे, लेकिन जब फैमिली के अन्य लोग भी चले गए तो अंत में उन्होंने भी आगरा छोड़ दिया। शुरुआती सालों में पाकिस्तान में बसे मुहाजिरों को कोई परेशानी नहीं आई। वे शहरी और पढ़े-लिखे थे। कराची, लाहौर जैसे शहरों में वे बड़े पैमाने पर जाकर बसे। उन्हें खूब सम्मान मिला और नौकरियों के अवसर भी रहे।

कैसे बिगड़ती गई पाकिस्तान में मुहाजिरों की स्थिति

फिर 1960 के दशक से चीजें बिगड़ती चली गईं। मोहम्मद अयूब खान ने सत्ता संभाली, जो एक पठान थे। वह मुहाजिरों के प्रति विद्वेष का भाव रखते थे और कहा जाता है कि कराची में राजधानी होने से मुहाजिरों का प्रभाव अधिक था। इसी के चलते उन्होंने नई राजधानी ही इस्लामाबाद में बनाई। इससे मुहाजिरों का वर्चस्व टूटा। इसके अलावा उर्दू बोलने को लेकर भी मुहाजिर निशाने पर रहते थे। कराची में रहते हुए सिंधी उन्हें भेदभाव के नजरिए से देखते थे। इसके अलावा एक समय में पख्तून बेहद मजबूत थे और कराची में उनसे भी भेदभाव झेलना पड़ता था। मुहाजिरों के साथ पाकिस्तान में भेदभाव की स्थिति अब भी जारी है। यही वजह है कि अल्ताफ हुसैन कहते हैं कि मुहाजिरों को बलूच, पंजाबी, सिंध, पश्तून के बाद पांचवीं पहचान के तौर पर मान्यता दी जाए।

मुहाजिरों का पाकिस्तान में बसना और पहचान बनना

स्वतंत्रता के बाद, उर्दू बोलने वाले मुसलमान, जिन्हें ‘मोहाजिर’, ‘पनाहगुज़ीर’ या ‘हिंदुस्तानी’ कहा जाने लगा, सिंध के शहरी इलाकों, खासकर कराची और हैदराबाद में बस गए। दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तान आने वाले 73% नए प्रवासी पंजाबी थे, जिन्होंने पंजाब में बसना पसंद किया। कुछ उर्दू बोलने वाले भी पंजाब में बस गए और पंजाबी संस्कृति में घुल-मिल गए। हालांकि, सिंध में स्थिति अलग थी, क्योंकि यहां मोहाजिरों ने कराची में अपनी अलग पहचान बना ली। विभाजन से पहले, कराची गैर-मुसलमानों का गढ़ था, लेकिन 1947 के बाद जब वे भारत चले गए, तो मुहाजिरों पर किसी तरह की सांस्कृतिक घुल-मिल जाने (assimilation) का दबाव नहीं था। इसके विपरीत, कराची और हैदराबाद में वे स्वतंत्र रूप से अपनी भाषा और संस्कृति का पालन कर सकते थे।

राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव

राजनीतिक रूप से, मोहाजिरों को नई पाकिस्तानी सरकार में अच्छी तरह से प्रतिनिधित्व मिला। वे एक उन्नत शहरी पूंजीवादी संस्कृति से आए थे, जो उन्होंने भारत के कस्बों और शहरों से अपने साथ लाई थी। उनके पास एक समृद्ध व्यापारिक वर्ग था, साथ ही एक शिक्षित और प्रशासनिक सेवा वर्ग भी था। इसके अलावा, उनके पास एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित श्रमिक वर्ग भी था। लियाकत अली खान, जो खुद एक मोहाजिर थे, पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने। पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में उर्दू को अपनाना और कराची को देश की राजधानी बनाना इस बात का संकेत था कि मोहाजिर अब पाकिस्तान की सत्ता संरचना में पंजाबी समुदाय के साथ जूनियर पार्टनर बन गए थे।

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