अमेरिका गरजा, ईरान धधका… पर चीन चुप! जिनपिंग की मजबूरी या माइंड गेम
अमेरिका ने अभूतपूर्व हमले में ईरान के परमाणु ठिकानों को तबाह किया। चीन चुप रहा। ट्रंप की सैन्य आक्रामकता ने बीजिंग को यह संकेत दिया है कि अगर वह ताइवान पर हमला करने का सोचता है, तो अमेरिका सैन्य प्रतिक्रिया देने से पीछे नहीं हटेगा।

22 जून को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जब ईरान के परमाणु ठिकानों पर एक के बाद एक अभूतपूर्व हवाई हमलों का आदेश दिया, तो यह पश्चिम एशिया में अमेरिका की सबसे बड़ी सैन्य कार्रवाई बन गई। 2003 के इराक युद्ध के बाद पहली बार इतनी आक्रामक सैन्य पहल हुई। जहां रूस, तुर्किये और पाकिस्तान जैसे देशों की निंदा की प्रतिक्रिया अपेक्षित थी, वहीं सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह रही कि चीन जैसी वैश्विक ताकत इस संकट पर लगभग चुप्पी साधे बैठी रही।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की सरकार ने अमेरिका के हमलों को "अंतरराष्ट्रीय कानून का गंभीर उल्लंघन" बताया, लेकिन न तो कूटनीतिक हस्तक्षेप किया, न ही सैन्य प्रतिक्रिया दी। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार, ट्रंप की इस कार्रवाई ने दुनिया को यह स्पष्ट रूप से दिखा दिया कि चीन की वैश्विक प्रभाव क्षमता सीमित है और वह संकट के समय महज “राजनयिक दर्शक” बनकर रह जाता है। वहीं दूसरी ओर ट्रंप ने हवाई हमलों के तुरंत बाद ईरान और इजरायल के बीच सीज़फायर की मध्यस्थता भी शुरू कर दी, यह दिखाते हुए कि अमेरिका ना केवल युद्ध कर सकता है, बल्कि शांति भी स्थापित कर सकता है।
चीन की रणनीति
चीन ने संकट में कोई निर्णायक पहल नहीं की। वह सिर्फ संयम की अपील करता रहा और अपने हज़ारों नागरिकों को ईरान से निकालने में लगा रहा। उसके राजनयिक बयान सिर्फ "स्थिति को स्थिर रखने" की मांग तक सीमित रहे। विशेषज्ञों के अनुसार, यह जिनपिंग की उस सतर्क रणनीति का हिस्सा है, जो घरेलू आर्थिक पुनर्निर्माण, सामाजिक स्थिरता और अमेरिका से टकराव से बचने पर केंद्रित है। बीजिंग की प्राथमिकता व्यापार है, न कि टकराव।
ईरान से चीन के बड़े हित जुड़े, पर जोखिम नहीं मंजूर
चीन और ईरान के बीच 2021 में हुए 25 वर्षों के 400 अरब डॉलर के रणनीतिक समझौते में ऊर्जा और बुनियादी ढांचा परियोजनाएं शामिल थीं। लेकिन अभी तक इनका क्रियान्वयन बेहद धीमा रहा है क्योंकि चीनी कंपनियां अमेरिकी प्रतिबंधों के डर से पीछे हटती रही हैं। ग्रोनिंगन विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ विलियम फिगुएरोआ का कहना है, “चीनी सरकारी कंपनियां अभी तक अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से ईरान में निवेश से बच रही हैं।”
चीन की चुप्पी से ईरान नाराज
चीन के संयुक्त राष्ट्र राजदूत फू कोंग ने बयान दिया कि “ईरान को नुकसान हुआ, लेकिन अमेरिका की वैश्विक साख भी क्षतिग्रस्त हुई है।” हालांकि, इससे ज्यादा कुछ नहीं कहा गया। वहीं चीन के सरकारी मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने लिखा, “वॉशिंगटन युद्ध की आग में घी डाल रहा है और ईरान-इजरायल संघर्ष को और खतरनाक दिशा में ले जा रहा है।” लेकिन चीन के करीबी सहयोगी ईरान तक में इस मौन रुख पर नाराज़गी दिख रही है। इज़राइल के राइखमैन विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ गेडालिया आफ्टरमैन के अनुसार, "भले ही चीन और ईरान के संबंध गहरे हैं, लेकिन सैन्य या कूटनीतिक प्रभाव दिखाने की चीन की क्षमता बेहद सीमित है।"
वैश्विक मंच पर चीन की छवि को झटका
अमेरिका के आक्रामक रुख ने फिर यह साबित कर दिया कि वास्तविक संकट में निर्णायक शक्ति अमेरिका ही है। चीन, जो खुद को "अमेरिकी प्रभुत्व का विकल्प" बताता रहा है, इस बार महज़ दर्शक की भूमिका में रह गया। विश्लेषकों का मानना है कि यह संकट खासतौर पर ग्लोबल साउथ और खाड़ी देशों के लिए आंख खोलने वाला है, जिन्हें अब यह सोचना पड़ेगा कि चीन केवल आर्थिक साझेदार है या संकट के समय कोई भरोसेमंद भागीदार भी?
ताइवान को लेकर चीन सतर्क?
ट्रंप की सैन्य आक्रामकता ने बीजिंग को यह संकेत भी दिया है कि अगर वह ताइवान पर हमला करने का सोचता है, तो अमेरिका सैन्य प्रतिक्रिया देने से पीछे नहीं हटेगा। राइखमैन विश्वविद्यालय के आफ्टरमैन के अनुसार, "ईरान में ट्रंप की सैन्य कार्रवाई से बीजिंग को यह संदेश गया है कि अमेरिका ताइवान पर भी आक्रामक प्रतिक्रिया दे सकता है।" हालांकि, कुछ विश्लेषकों का यह भी मानना है कि अगर अमेरिका मध्य पूर्व में उलझता है, तो इससे चीन को अन्य मोर्चों पर राहत मिल सकती है।
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