Hindi Newsओपिनियन नजरियाHindustan nazariya column 27 June 2025

शहरों को जाम से निकालने और संवारने की जरूरत

बढ़ती शहरी आबादी को बसाने के लिए शहरों का जितना विस्तार हो रहा है, उसी अनुपात में बुनियादी ढांचा खड़ा करने की मशक्कत भी करनी पड़ रही है। इस जन-दबाव से निपटने के लिए आम तौर पर अधिक से अधिक सड़कों का निर्माण, उनका चौड़ीकरण…

Hindustan लाइव हिन्दुस्तानThu, 26 June 2025 11:22 PM
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शहरों को जाम से निकालने और संवारने की जरूरत

संजय चड्ढा, पूर्व अतिरिक्त सचिव, भारत सरकार

बढ़ती शहरी आबादी को बसाने के लिए शहरों का जितना विस्तार हो रहा है, उसी अनुपात में बुनियादी ढांचा खड़ा करने की मशक्कत भी करनी पड़ रही है। इस जन-दबाव से निपटने के लिए आम तौर पर अधिक से अधिक सड़कों का निर्माण, उनका चौड़ीकरण और फ्लाईओवर बनाने की नीति अपनाई जाती है। हालांकि, यह नीति उतनी कारगर नहीं साबित हो रही। लिहाजा राज्यों में अब मौजूदा बुनियादी ढांचे को ही बेहतर बनाकर अधिक टिकाऊ विकल्प की तलाश शुरू हो गई है। यदि इस दिशा में सही से काम हुआ, तो आशाजनक प्रगति हो सकती है।

इस साल की शुरुआत में महाराष्ट्र ने वाहनों को अधिक उपयोगी बनाने के इरादे से कार व बाइक पूलिंग नीति को मंजूरी दी, ताकि सड़क पर वाहनों की संख्या में कमी आए। दिल्ली में इंडिया गेट के आसपास भी वाहनों की भीड़भाड़ को प्रबंधित करने के लिए कुछ खास पॉइंट तय किए गए हैं, जहां से प्राधिकरण की टैक्सियां लोगों को इंडिया गेट तक लाती और पहुंचाती हैं। हाल ही में दिल्ली सरकार ने अपने ‘वन सिटी, वन कम्यूट’ नीति के तहत एकीकृत परिवहन प्राधिकरण की घोषणा की है। इसमें एक ही टिकट पर सभी तरह के सार्वजनिक वाहनों का उपयोग किया जा सकता है।

दरअसल, हरेक जगह यह देखा जा रहा है कि लोग-बाग अपनी कार लेकर अकेले निकल पड़ते हैं। दिल्ली में ऐसी निजी कारें सड़कों का 75 प्रतिशत हिस्सा घेर लेती हैं। हालांकि यात्रियों की कुल भीड़ में इनकी हिस्सेदारी रोजाना 20 प्रतिशत से भी कम ही होती है। देश में 10 प्रतिशत से भी कम लोगों के पास कार होने के बावजूद उन्हें सार्वजनिक रियायतों में व शहरी जमीन पर जरूरत से ज्यादा तवज्जो मिलती है। मुंबई में नगरपालिका ऑडिट में पाया गया कि प्रमुख क्षेत्रों में लगभग 30 प्रतिशत फुटपाथ कारों या उनके रखरखाव, मरम्मत आदि के कारण अवरुद्ध रहते हैं। मेट्रो रेल नेटवर्क के विस्तार से सड़कों पर दबाव कुछ कम हुआ है, मगर अपेक्षित गंतव्य तक इसकी अनुपलब्धता और टुकड़े-टुकड़े में योजना-निर्माण के कारण इसकी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पाया है।

उबर, ओला, रैपिडो व क्विक राइड जैसी सेवाओं ने लोगों की यात्रा के तरीके को बदल दिया है। इनके कारण बेकार पड़े वाहन भी उपयोग में आ गए हैं। मगर नीति बनाने में उदासीनता, बुनियादी ढांचे के सुधार में हीला-हवाली और इन सेवाओं के इस्तेमाल के लिए प्रेरक उपायों में कमी की वजह से इस दिशा में अपेक्षित विकास नहीं हो रहा। हालांकि, इन सेवाओं की मांग में कोई कमी नहीं है।

कोच्चि वाटर मेट्रो ने इस दिशा में नई राह दिखाई है। वहां एक ही टिकट-कार्ड से ई-ऑटो फीडर के साथ फेरी सेवाओं को भी जोड़ दिया गया है। इसी तरह सूरत की क्षेत्रीय पार्किंग प्रणाली ने फुटपाथों के बेहतर उपयोग के लिए वहां पैदल यात्री प्लाजा बनाए हैं। ये कुछ ऐसे मॉडल हैं, जो दर्शाते हैं कि कैसे शहरी भूमि का अधिक कुशलता से उपयोग हो सकता है, कार्बन उत्सर्जन को कम किया जा सकता है और सार्वजनिक परिवहन के उपयोग में प्रौद्योगिकी की अधिक से अधिक मदद ली जा सकती है।

शहरी नियोजन स्थानीय जरूरतों के मुताबिक होना चाहिए। शहरों की सामूहिक परिवहन प्रणाली को मुख्यधारा में लाने के लिए स्पष्ट नियमों, प्रोत्साहनकारी उपायों व यात्रियों के अनुकूल बुनियादी ढांचे की जरूरत है। निजी कारों की पार्किंग में ही शहरों का बड़ा स्थान चला जाता है। विश्व बैंक का अनुमान है कि जाम के कारण भारतीय शहरों को सालाना 22 अरब डॉलर का नुकसान होता है। इसमें प्रदूषण से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर और उत्पादकता में कमी जैसे न दिखने वाले नुकसानों को देखें, तो सुधार और अधिक जरूरी हो जाता है।

शहरी जाम के संकट से निपटने के लिए हमें व्यस्त यातायात वाले इलाकों को सशुल्क बनाना होगा और इससे प्राप्त राशि को फुटपाथ बनाने या सार्वजनिक शटल सेवा शुरू करने में लगाना होगा। पायलट योजना के तहत स्कूलों व अस्पतालों के आसपास कम उत्सर्जन वाली गतिविधियों को प्रश्रय देने के साथ-साथ कम आबादी को बसाना चाहिए। छोटे-छोटे सुधारों से शहरों के परिदृश्य को बदला जा सकता है। भारतीय शहरों का भविष्य वाहनों के नहीं, लोगों के सुगम आवागमन में निहित है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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