बढ़ते टकरावों के बावजूद बढ़ता भारत
फिलहाल दुनिया कई प्रकार के टकरावों से गुजर रही है। एक तरफ ये टकराव विश्व-व्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ दुनिया में सुरक्षा संकट पैदा कर रहे हैं। क्या 21वीं सदी का मौलिक चरित्र यही है अथवा कुछ ताकतों के ‘ग्रेट गेम’ ने उसे इस कीचड़ में धकेल दिया है…

रहीस सिंह, विदेशी मामलों के वरिष्ठ अध्येता
फिलहाल दुनिया कई प्रकार के टकरावों से गुजर रही है। एक तरफ ये टकराव विश्व-व्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ दुनिया में सुरक्षा संकट पैदा कर रहे हैं। क्या 21वीं सदी का मौलिक चरित्र यही है अथवा कुछ ताकतों के ‘ग्रेट गेम’ ने उसे इस कीचड़ में धकेल दिया है? यदि ऐसा न होता, तो शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की किंगदाओ रोब मिनिस्टर्स (रक्षा मंत्रियों) समिट में जारी ‘संयुक्त संवाद’ में पाकिस्तानी आतंकवाद की कठोर शब्दों में निंदा की गई होती? ऐसे में, दो प्रश्न उठते हैं। पहला, क्या चीन और अमेरिका जैसे देशों के लिए आतंकवाद एक ‘रवायती शब्द’ है या वे वास्तव में इसके प्रति गंभीर हैं? और दूसरा, एससीओ व ब्रिक्स जैसे संगठन क्या अपने मूल से भटक चुके हैं?
पहलगाम में हुए आतंकी हमले और फिर ऑपरेशन सिंदूर के बाद शंघाई सहयोग संगठन की किंगदाओ समिट ऐसा पहला अवसर था, जब पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा किया जा सकता था। हालांकि, इसकी उम्मीदें कम ही थीं, क्योंकि बीजिंग उसकी पीठ थपथपाता रहता है। हुआ भी कुछ ऐसा ही। इस समिट में जारी संयुक्त घोषणा-पत्र में आतंकवाद को लेकर प्रयुक्त की गई भाषा बहुत कमजोर थी। इसमें पाकिस्तान में हुई आतंकी घटनाओं का तो जिक्र किया गया था, लेकिन हाल में पहलगाम में हुए आतंकी हमले को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया। इसलिए भारत ने इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया।
भारत का रुख सही है। आज की इस गैर-संभ्रांतता वाली प्रतियोगिता के दौर में भी वह वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश देने में समर्थ है और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना को आगे रखकर इस क्षेत्र को ‘विस्तारित परिवार’ के रूप में स्वीकार करने वाला बड़ा दिल रखता है। मगर चीन या अमेरिका जैसे देश इस मनोदशा से दूर खड़े दिख रहे हैं। भारत ‘ग्लोबल साउथ’ के साथ प्रमुख पहलों के माध्यम से व्यापारिक सहमतियों से लेकर रणनीतिक साझेदारियों तक, सभी दिशाओं में आगे बढ़ रहा है, लेकिन क्या चीन की बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) भी ऐसे उद्देश्यों को समेट पाएगी?
भारत ‘सिक्योर’ सिद्धांत के जरिये सुरक्षा (सिक्योरिटी), आर्थिक सहयोग (इकोनॉमिक कोऑपरेशन), संबद्धता या जुड़ाव (कनेक्टिविटी), एकता (यूनिटी), संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता एवं पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुसलों पर अपना ध्यान लगा रहा है। ये वे विषय हैं, जो दुनिया को ‘कॉमन फैमिली’ की ओर ले जाना चाहते हैं। लेकिन चीन का उद्देश्य अलग है।
गौर से देखें, तो भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के समय भी बड़प्पन दिखाया था, अन्यथा पाकिस्तान की हस्ती मिट सकती थी। उस समय पाकिस्तान काफी दबाव में था। अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल ने लिखा था- भारत ने आतंकी संगठनों पर कार्रवाई करके पाकिस्तान को यह संदेश दिया है कि अब वह ऐसे हमलों को बर्दाश्त नहीं करेगा। पाकिस्तान अंदरूनी समस्याओं से जूझ रहा है। इमरान खान जेल में हैं, उसके चुनाव विवादित रहे हैं, देश आर्थिक संकट में है...।
यह अमेरिका और चीन को भी मालूम था कि कर्ज पर टिकी अर्थव्यवस्था पाकिस्तान को भारत के समक्ष घुटने टेकने पर मजबूर कर देगी। ऐसा होने पर पाकिस्तान बिखर जाता व दक्षिण एशिया में भारत चुनौतीविहीन ताकत बन जाता। मगर भारत ने संघर्ष रोकने पर सहमति जताई। वह आज दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। ‘सस्टेनेबिलिटी विद पीस’ के साथ वह आगे बढ़ रहा है, इसलिए न केवल ग्लोबल साउथ, बल्कि दुनिया के अन्य भागों में स्थित देश भी उम्मीद भरी निगाहों से उसकी तरफ देख रहे हैं। वैसे, भारत की क्षमता को अब से करीब ढाई दशक पहले ही गोल्डमैन सैक्स के जिम ओ नील, पाउलो लेमे, सैंड्रा लॉसन, वारेन पियर्सन आदि ने पहचान ली थी। तभी उन्होंने दशक भर पहले ड्रीमिंग विद ब्रिक्स : द पाथ टु 2050 नाम से एक रिपोर्ट पेश की थी।
इन अर्थशास्त्रियों को मालूम था कि दुनिया में महत्वपूर्ण भू-रणनीतिक बदलाव हो रहे हैं और आगे भी कम या ज्यादा गति से ये बदलाव होते रहेंगे, जिनका प्रभाव स्थायित्व, सुरक्षा और विकास पर पड़ता रहेगा। ऐसे में, इन तीनों क्षेत्रों में ब्रिक्स की भूमिका अहम होगी। यानी ब्रिक्स, जिसमें भारत एक महत्वपूर्ण घटक है, विश्व की आर्थिक वृद्धि के लिए आशा की किरण के रूप में देखा गया था। इसके कारण भी थे।
दरअसल, उस समय जिस तरह के हालात नजर आ रहे थे, अर्थात- वैश्विक आतंकवाद, एशियन टाइगर्स का लंगड़ाती स्थिति में पहुंच जाना और फिर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में झटकों का अनुमान, जिसके परिणाम 2008 में दिख चुके थे, उनके लिए जिम्मेदार वही सत्ता-केंद्र थे, जो कभी विश्व युद्धों के लिए जिम्मेदार रहे, तो कभी शीतयुद्ध के लिए, अर्थात वाशिंगटन, मॉस्को, लंदन और पेरिस। अब इनमें एक नया नाम बीजिंग का जुड़ रहा था, जिसे ‘दुनिया की इंडस्ट्री’ के रूप में देखा जाने लगा था। भारत भी ‘वर्ल्ड्स ऑफिस’ के रूप में अपनी पहचान बना रहा था। इसलिए ब्रिक्स से उम्मीदें बहुत थीं, परंतु इन उम्मीदों के बीच यह बात न जाने क्यों दरकिनार की जाती रही कि चीन भारत का सहयोगी नहीं हो सकता।
भारत जिस आतंकवाद से प्रभावित रहा है, उसका केंद्र पाकिस्तान है, और पाकिस्तान का सदाबहार मित्र चीन है। फिर चीन पाकिस्तान की गर्दन पर पांव रखकर आगे नहीं बढ़ सकता, जबकि भारत चीन के साथ भी वैश्विक प्रगति के लिए कदम बढ़ाना चाह रहा है। इसी का प्रमाण है कि ब्रिक्स जैसी संस्थाएं, अर्थात ब्रिक्स इंटर बैंक कोऑपरेशन मैकेनिज्म, न्यू डेवलपमेंट बैंक, कंटिंजेंट रिजर्व अरेंजमेंट और कस्टम्स कोऑपरेशन आदि के जरिये भारत ने भी वैश्विक अर्थव्यवस्था व रिकवरी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
फिलहाल रियो डि जेनेरियो ब्रिक्स शिखर समिट में शी जिनपिंग और व्लादिमीर पुतिन अनुपस्थित रहने वाले हैं। ऐसे में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्राजील सहित अन्य सदस्य देशों के साथ मिलकर इस मंच पर भारत को एक नई ऊंचाई प्रदान कर सकते हैं। विशेषकर तब, जब ब्राजील भी भारत की तरह बीआरआई पहल से दूरी बनाए रखकर चीन को ‘डिप्लोमेटिक कोल्डनेस’ का संदेश दे रहा हो। ऐसे में, हम क्या यह कह सकते हैं कि आज ‘ड्रीमिंग विद ब्रिक्स : द पाथ टु 2050’ एक राह तलाश रही है और शंघाई सहयोग संगठन जैसा मंच जब अपने मूल उद्देश्यों से भटकता दिख रहा है, तब भी भारत अपने संकल्पों के साथ दुनिया को साथ ले चलने के लिए प्रतिबद्ध है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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