विवाहिता के हिंसक होने की वजह समझें
मुस्कान, रविता और अब सोनम- बीते कुछ वर्षों में ऐसे कई नाम सामने आए हैं, जिन्होंने समाज को झकझोर दिया है। ये वे महिलाएं हैं, जिन्होंने अपने पति की हत्या कर दी। कभी प्रेम में विफलता, कभी घरेलू कलह, तो कभी किसी अनकही…

मुस्कान, रविता और अब सोनम- बीते कुछ वर्षों में ऐसे कई नाम सामने आए हैं, जिन्होंने समाज को झकझोर दिया है। ये वे महिलाएं हैं, जिन्होंने अपने पति की हत्या कर दी। कभी प्रेम में विफलता, कभी घरेलू कलह, तो कभी किसी अनकही मनोव्यथा के कारण। सवाल यह है कि क्या स्त्रियां अब हिंसक हो रही हैं या यह किसी गहरे सामाजिक, मानसिक और वैयक्तिक तनाव का विस्फोट है? आज की स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है और निर्णय लेने में सक्षम भी। यह परिवर्तन स्वागत योग्य है। मगर समाज उसे अधिकार तो देता है, पर जब मानसिक या भावनात्मक सुरक्षा नहीं देता, तो वह न टकराव से बच पाती है, न ही खुद से। कई बार यह आंतरिक तनाव घातक बन जाता है।
विवाह से पूर्व प्रेम संबंध सामान्य बात है, लेकिन यदि वह संबंध टूटता है और विवाह पारिवारिक-सामाजिक दबाव में होता है, तो भावनात्मक असंतुलन गहराता है। अगर पति-पत्नी के बीच सम्मान, संवाद और संवेदनशीलता न हो, तो स्त्री के भीतर का आक्रोश कभी-कभी अकल्पनीय निर्णय ले लेता है। कभी-कभी अपराध का कारण केवल भावनात्मक नहीं होता, भौतिक भी हो सकता है। विवाह के बाद महिलाओं को पति की संपत्ति में कानूनी अधिकार मिल जाते हैं। दुर्भाग्यवश, कुछ मामलों में यह लालच भी कारण बनता है, बिना अंजाम की चिंता किए। आज की जीवनशैली में व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति को ही सफलता मान लिया गया है। जब यह मानसिकता रिश्तों में उतरती है, तो सामने वाला केवल बाधा बन जाता है।
भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई कानून हैं- जैसे दहेज निषेध, घरेलू हिंसा अधिनियम इत्यादि। मगर जब स्त्रियां इन कानूनों का दुरुपयोग करती हैं या फिर आर्थिक लाभ के लिए अपराध करती हैं, तो यह न केवल कानून को कमजोर करता है, बल्कि सच्चे पीड़ित के संघर्ष को भी कमजोर करता है। कई बार हत्या जैसे अपराध के पीछे वजह अकेलापन या बचपन की मानसिक चोट होती है। हम अब भी मानसिक स्वास्थ्य को कलंक समझते हैं, विशेषकर जब वह स्त्रियों से जुड़ा हो। यह चुप्पी किसी दिन विस्फोटक बन सकती है। हालांकि, भारत में दर्ज गंभीर अपराधों में महिलाओं की हिस्सेदारी अब भी पुरुषों की तुलना में बहुत कम है। मगर महिला अपराधों में वृद्धि का कारण भावनात्मक विफलता, सामाजिक दबाव और मानसिक रोग भी बताया गया है। ऐसे में, समाज को चाहिए कि वह संवाद को बढ़ावा दे, मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दे और स्त्री-पुरुष, दोनों के संघर्षों को ‘समझे’, न कि ‘आंके’।
मेघा राठी, टिप्पणीकार
यह विवाह संस्था में व्यक्त विश्वास का कत्ल
छिपकली से भी डरने वाली लड़कियां आखिर इतनी निडर कैसे हो गईं कि अपने जीवन साथी को मौत के घाट उतारने में भी उन्हें संकोच नही होता? कभी भाड़े के हत्यारों को बुलाकर पति की हत्या की साजिश रचती हैं। कभी पति को सुनसान जंगल में ले जाकर मौत के हवाले कर शव को खाई में फेंक देती हैं। कभी कत्ल करके शव को ड्रम में डालकर सीमेंट के घोल से पत्थर बनाने का असफल प्रयास करती हैं। कभी अपने प्रेमी के साथ पति का गला घोंटकर शव के ऊपर सांप को बिठाकर मौत का कारण सांप द्वारा डसा जाना बताती हैं। कभी विवाह के उपरांत पति की कमाई पर कब्जा करके अपने मायके वालों का पोषण करती हैं और पति को आतंकित करके मृत्यु का वरण करने के लिए विवश कर देती हैं।
मेघालय में हनीमून ट्रिप पर गई नव विवाहिता सोनम की कहानी भी पुरानी कहानियों से इतर प्रतीत नहीं होती। यह केवल एक युवक राजा रघुवंशी का कत्ल नहीं है, बल्कि विवाह जैसी पवित्र संस्था में व्यक्त किए गए विश्वास का कत्ल है। इसे बेशक समय के साथ नियति मानकर भुला दिया जाएगा, लेकिन पिछली कुछ घटनाओं के बाद विवाह जैसे पवित्र बंधन पर प्रश्न उठने लगा है। खासकर उन वैवाहिक रिश्तों पर, जिन्हें दो परिवारों की सहमति से पारंपरिक रीति-रिवाजों से जोड़ा गया हो। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि वासना पूर्ति के लिए समाज में इतना खुलापन आ चुका है कि दैहिक संबंधों में न उम्र आड़े आ रही है और न ही रिश्तों की मर्यादा। कहीं सास अपने दामाद के साथ भाग जा रही है, तो कहीं कोई अन्य करीबी रिश्तेदार कलंक की कथा लिखने में पीछे नहीं रह रहा।
मनोविज्ञानियों व समाजशास्त्रियों के लिए यह गंभीर चिंतन का विषय है कि समाज आखिर किस दिशा में जा रहा है? क्या विवाह जैसी मजबूत संस्था का अस्तित्व अब चरमराने लगा है? क्या नारी के सशक्तीकरण में इस प्रकार के आचरण को स्वीकार किया जा सकता है? क्या हत्या, हत्या की साजिश जैसे कृत्यों के चलते अपराधी विवाहिताएं किसी प्रकार की दया या संवेदना की पात्र हैं?
ऐसी लोमहर्षक, शर्मनाक घटनाओं की पुनरावृत्ति दुखद है। विडंबना यह है कि मीडिया को भी कुछ समय के लिए घटना के तमाम पहलुओं पर बात करते हुए अपने-अपने तरीके से उसे प्रस्तुत करने का अवसर मिल जाता है। सोशल मीडिया भी पक्ष-विपक्ष में अपनी भड़ास निकालने लगता है। इन सबमें यह विचारणीय बिंदु छूट जाता है कि समाज में ऐसी घटनाओं को बेखौफ होकर अंजाम देने का दुस्साहस आखिर बढ़ कैसे रहा है?
सुधाकर आशावादी, टिप्पणीकार
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